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यह संवाद सूक्ष्म सत्य की अभिव्यक्ति है। महावीर ने कहा-क्रिया केवल क्रिया के रूप में ही समाप्त नहीं होती। वह अपने पीछे संस्कार के पदचिह्न भी छोड़ती है। इन संस्कारों के उदय होने पर पुनः उसी रूप में क्रिया करने को तत्पर हो जाता है। संस्कारों का अक्षय भंडार है जो भरता ही रहता है।
संस्कारों के इस भंडार को ही मनोविज्ञान में अचेतन मन (Unconscious mind) कहा जाता है। अतः तुलनात्मक दृष्टि से कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान काफी निकट हैं। दोनों एक ही धुरी पर अवस्थित हैं। कर्मशास्त्र और शरीर विज्ञान
__ कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म के चार आवेग हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ। चार मुख्य आवेग हैं। उपआवेग की संख्या नौ है- हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद। इन्हें नोकषाय भी कहा जाता है। ये सब मोहकर्म के ही भेद-प्रभेद हैं। व्यक्ति की दृष्टि और चरित्र को प्रभावित करते हैं। मोह के परमाणु मूर्छा के जनक हैं। मूर्छा से दृष्टि, व्यवहार और आचार-सभी मूर्छित हो जाते हैं।
शरीरशास्त्र के आधार पर आवेग छह हैं- भय, क्रोध, हर्ष, शोक, प्रेम और घृणा। आवेगों का बड़ा महत्त्व है। स्नायुतंत्र, मांसपेशियां, रक्त-प्रवाह, फुप्फुस, हृदयगति, श्वास और ग्रन्थियां, इन सब पर इनका प्रभाव है। शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन भी आवेगों के कारण होता है।
प्राणियों की विभिन्नताओं, वैयक्तिक विशेषताओं, अपूर्व क्षमताओं, मानसिक और बौद्धिक विलक्षणताओं का मूल कारण पूर्व कृत कर्म ही क्यों ?
इसे प्रमाणित किया है जीन, आनुवंशिकता, परिवेश, ग्रन्थियों के स्राव, मनोविज्ञान, जैवविज्ञान आदि ने। किन्तु जैन दर्शन ने स्पष्ट रूप से वैविध्य का कारण कर्म घोषित किया है। भगवती सूत्र में प्रश्न है-“कम्मओ८ णं जीवे णो अकम्मओ विभत्ति भावं परिणमई।” अर्थात् जीव कर्म के द्वारा ही विविधता को प्राप्त करता है। अकर्म से नहीं। आत्मा का आन्तरिक वातावरण : परिस्थिति के घटक
आत्मा की आंतरिक योग्यता सबमें एक जैसी नहीं होती। इसका हेतु भी कर्म है। कर्म के संयोग से आत्मा आवृत, विकृत होती है। कर्म के विलय से स्वभाव में स्थित हो जाती है। कर्म-मुक्त आत्मा पर बाह्य परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अशुद्ध आत्मा प्रभावित हो जाती है । परिस्थिति उत्तेजक है। कारक नहीं।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन