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हार्मोन्स, ग्रन्थियों के स्राव कहा जाता है, कर्मशास्त्र में उन्हें रसविपाक या अनुभाग की संज्ञा दी है।
फ्रायड ने भी मन के तीन पक्ष बताये हैं-चेतन (Conscious) अवचेतन (Pre-conscious) और अचेतन (Un-conscious) । चेतन मन वह है जिसमें इच्छाओं, विचारों, घटनाओं की वर्तमान में अनुभूति रहती है।
अवचेतन मन, इच्छाओं और स्मृतियों का भंडार है पर उनका ज्ञान वर्तमान में नहीं रहता । अचेतन मन दमित भावनाओं, विचारों एवं आवेगों का संग्रहालय है जिसकी चेतना न वर्तमान में होती है न प्रयास करने पर भी प्रत्यक्ष विषय बनती है।
चेतन मन जो कुछ करता है वह सब वर्तमान का ही नहीं, उसमें अवचेतन मन का हिस्सा होता है। कर्मशास्त्र की भी यही मान्यता है कि मनुष्य जो कार्य करता है वह केवल वर्तमान परिवेश और परिस्थिति से प्रभावित होकर ही नहीं करता बल्कि उसके पीछे पूर्वार्जित कर्मों का भी होता है ।
दबी हुई इच्छाएं, आकांक्षाएं अवचेतन मन में चली जाती हैं। जब वे जाग्रत होती हैं तो चेतन मन को प्रभावित कर सक्रिय बनाती हैं। कर्मशास्त्र के अनुसार पूर्वार्जित कर्म जब उदयावस्था में आते हैं तो अपना फल देते हैं। तब उनसे स्थूल मन प्रभावित होता है और तदनुरूप व्यवहार करने लगता है ।
फ्रायड ने मानव-व्यवहार की प्रेरक शक्ति के रूप में दो तत्त्व माने हैंइरोज (Eros) एवं थैनटॉस (Thanatos) | जैन दर्शन की भाषा में इन्हें राग- - द्वेष कहा जाता है। कर्म संग्रह में दो निमित्त हैं । ज्ञान चेतना से कर्म बंध नहीं होता । कर्मफल चेतना जब राग-द्वेष युक्त होती है तब संवेदनात्मक बनती है।
उत्तराध्ययन में कहा है-मोह चेतना से युक्त अनुभूति ही कर्म बंधन का कारण है। जयंति श्राविका ने प्रश्न उठाया था-भंते ! प्रशस्त क्या है ? अप्रशस्त क्या है ?
महावीर जयंति ! लघुता प्रशस्त है । गुरुता अप्रशस्त
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जयंति का मन समाहित नहीं हुआ । इस रहस्य को समझ नहीं पाई तब प्रतिप्रश्न किया- भंते ! क्या जीव हल्का - भारी होता है ?
महावीर - जीव प्राणातिपात, मृषावाद आदि क्रियाओं से भारी होता है । इनका निरोध करने से हल्का होता है ।
कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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