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"पुरुष के अण्डकोष (Testicles) में अनेक कोशिकाएं होती हैं। उनमें से कुछ कोशिकाएं विभिन्न जटिल परिवर्तनों से होकर गुजरती हैं। जो कोशिकाएं Mature हो जाती हैं उन्हें शुक्राणु कहते हैं।
शुक्राणु तीन भागों में विभक्त होते हैं-शिरोभाग, मध्यभाग, तथा पूंछ। इसकी लम्बाई लगभग ०, ०५ मि.मी. तथा मोटाई पतले बाल की आधी होती है। पुरुष एक बार में दो करोड़ से ४० करोड़ तक शुक्राणु निकालता है। शुक्राणु के शिरोभाग में क्रोमोसोम है। मध्यभाग ( Middle Piece) ऊर्जा देता है। पूंछ (Tail) चलने में सहयोगी है। शुक्राणु की औसत आयु ४८ से ७२ घंटे की है।
__ लेकिन इन्हें ० से १८० डिग्री सेल्सियम नीचे ताप पर द्रवित कर कार्बन-डाई-ऑक्साइड में पूर्ण रूप में फ्रीज कर दिया जाये तो महीनों तक सुरक्षित भी रखा जा सकता है। यदि शिरोभाग से मध्यभाग और पूंछ अलग कर दिये जायें तो ये निष्क्रिय होकर अड़तालीस घंटे से पूर्व ही मर जाते हैं।" इससे शुक्राणु की सजीवता प्रमाणित है।
शरीर विज्ञान की मान्यता से शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक 'जीन' है। मनुष्य की शक्ति, पुरुषार्थ और कर्तृत्व कितना है जीन उनका आधार है। विश्व की विषमता और विचित्रता का मुख्य निमित्त 'जीन' को ही माना है।
आनुवंशिकता, जीन, रासायनिक परिवर्तन और कर्म सिद्धांत। तुलनात्मक दृष्टि से इनमें कर्म ही मुख्य है। जीन स्थूल शरीर का अवयव है। कर्म सूक्ष्मतर शरीर का। दोनों परस्पर अनुबंधित हैं।
महावीर ने भगवती तथा स्थानांग में 'जीन' को मातृअंग, पितृअंग के रूप में निरूपित किया है। इसलिये आधुनिक विज्ञान के वंशानुक्रम की खोज कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है।
माता-पिता के संस्कार संतान में संक्रमित होते हैं किन्तु एक समान वातावरण, समान पर्यावरण, समान संस्कार एवं शिक्षा की व्यवस्था समान होने पर भी दो संतानों में काफी विषमताएं दोषी जाती हैं। समान 'जीन संरचना' फिर भी दोनों के विकास, व्यवहार, बुद्धि और आचरण में भेद है। ऐसा क्यों?
वंशानुक्रम विज्ञान के पास इनका उत्तर नहीं है। मनोविज्ञान भी निरुत्तर है। तब कर्म की ओर दृष्टि टिकती है। कर्म जीन से सूक्ष्मतर है। जैन दर्शन में भिन्नता का मूल कर्म है। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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