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उन्हें कर्माशय कहा जाता है। कर्माशय का फल जन्म और जन्मान्तर दोनों में प्राप्त हो सकता है।" जन्म (जाति), आयु और भोग रूप फल तीन प्रकार
का है।५६
अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन में कर्म का विशेष विवेचन है। यही कारण है, कर्मवाद जैन दर्शन का विशिष्ट अंग बन गया। जैन दर्शन में कर्म के आधारभूत सिद्धांत हैं१. प्रत्येक क्रिया फलवती होती है। निष्फल नहीं होती। २. कर्म का फल यदि वर्तमान में नहीं मिलता तो भविष्य में अवश्य मिलेगा। ३. कर्म का कर्ता और भोक्ता जीव स्वयं है। ४. व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता का हेतु कर्म ही है। आधुनिक विज्ञान और कर्म
संसार का वैषम्य जिज्ञासा पैदा करता है कि यह वैषम्य क्यों? इसके पीछे कारण क्या है? करोड़ों मनुष्यों में जातिगत एकता होने पर भी वैयक्तिक भिन्नता क्यों है? कोई भी मनुष्य शारीरिक या मानसिक, किसी भी दृष्टि से समानता नहीं रखता।
अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, लम्बा-छोटा, यह वैयक्तिक भिन्नता प्रत्यक्ष है। गति-मति-संस्कृति में भिन्नता, विचार एवं भावना में भिन्नता, बौद्धिक क्षमता एवं स्वभाव में भिन्नता। इनके पीछे हेतु क्या है ?
ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रिय-शक्ति, विद्वत्ता, सुख-दुःख, हर्ष-शोक, आयु, जन्म, कुल, जैविक-लक्षण, शारीरिक संरचना आदि ऐसे अनेक पहलू हैं जो जीव-जगत की विचित्रता विभक्ति को पैदा करते हैं।
भेद के कारणों पर मनोविज्ञान ने सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ चिन्तन किया है। उसने दो कारण खोजे हैं-हेरिडिटी (Heredity) वंशानुक्रम
और पर्यावरण। ये दोनों तत्त्व मनुष्य के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तत्त्व हैं। नैतिक, सामाजिक, बौद्धिक और शारीरिक सभी परिस्थितियां वातावरण के अन्तर्गत आ जाती हैं।
वंशानुक्रम गुणों का एक जोड़ है जो बालक जन्म से लेकर आता है। सामान्यतया यह धारणा है कि समान-समान को ही पैदा करता है। अर्थात् माता-पिता के अनुरूप संतान होती है। अभिभावक बुद्धिमान, स्वस्थ और कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता -