________________
वेदान्त
कर्म शब्द ढाई अक्षरों का जोड़ है किन्तु बड़ा विचित्र है। समस्त अध्यात्म के रहस्यों को अपने में समेटे हुए है। जैन तीर्थंकरों ने विश्व को अनेक अवदान दिये हैं। कर्मवाद उस-श्रृंखला में अद्वितीय है।
इसके आधार पर ही गति-अगति, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक, उत्कर्ष-अपकर्ष, मोक्ष का सिद्धांत निरूपित किया है। कर्म का स्वरूप, फल, परिपाक, आदेयत्व, अनादेयत्व आदि अनेक पहलू हैं, जिन पर विभिन्न दर्शनों में विस्तार से चिंतन किया गया है। जैन दर्शन में कर्मवाद पर मौलिक चिन्तन उपलब्ध है, जो तर्कसंगत और वैज्ञानिकतापूर्ण है।
भारत के सभी धर्मग्रन्थों, धर्मशास्त्रों और दर्शनों में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है जो आत्मा की विभिन्न शक्तियों को प्रभावित, आवृत और कुंठित करता है। शब्दान्तर हो सकता है किन्तु मूल तथ्य समान है। जैसे
माया या अविद्या सांख्य दर्शन - प्रकृति या संस्कार योग दर्शन
कर्माशय या क्लेश न्याय दर्शन
अदृष्ट या संस्कार बौद्ध दर्शन
वासना या अविज्ञप्ति वैशषिक दर्शन
धर्माधर्म शैव दर्शन - पाश मीमांसा दर्शन - अपूर्व जैन दर्शन
-
कर्म ऋग्वेद५४ में कर्म शब्द चालीस बार प्रयुक्त हुआ है। वहां धार्मिक अनुष्ठान का द्योतक है। इस प्रकार किसी-न-किसी रूप में सभी दर्शनों ने कर्म को मान्य किया है। बौद्ध दर्शन में शारीरिक, वाचिक ओर मानसिक क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया है। कर्मोत्पत्ति के तथागत ने तीन कारण माने हैं-लोभ, द्वेष और मोह। ये तीनों अकुशल के मूल हैं।
पातंजल योग दर्शन में कर्म के संस्कारों की जड़ है-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश। ये पांच क्लेश हैं। यह क्लेशमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्म में दुःख देता है वैसे भविष्य में भी। चित्तगत ये भावनाएं और क्रियाएं ही विविध अवस्थाओं में परिणत होकर संचित होती हैं। उस अवस्था में
.११२
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन