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तथागत बुद्ध ने कहा-जो जैसा बीज बोता है, तदनुरूप फल पाता है।४२ कर्म ही पुनर्जन्म का मूल है। सद्गति-असद्गति का आधार कर्म है। यही उनका विपाक है।४३
वैदिक दर्शन में भी विपाक के सम्बन्ध में विचारणा उपलब्ध है। महाभारत में कहा है-गाय का बछड़ा, हजारों गायों में भी अपनी मां को खोज लेता है और उसका अनुसरण करता है वैसे ही पूर्वकृत कर्म कर्ता का अनुसरण करते हैं।४४ जो कर्म करता है वही उसे भोगनेवाला है।४५
कर्म और कर्मविपाक की चर्चा करने पर प्रश्न उठता है कि अचेतन कर्म नियमित एवं यथोचित फल कैसे देते हैं ?
उक्त प्रश्न समाधान मांगता है। कर्म नहीं जानते किसे क्या फल देना है किन्तु आत्म-प्रवृत्ति से शुभाशुभ कर्म आकृष्ट होते हैं उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है। आत्मा को उसी के अनुसार फल मिल जाता है। विष ने मारने की कला कहां सीखी? किन्तु आत्मा के संपर्क में आते ही उसमें मारक शक्ति पैदा हो जाती है।
पथ्य भोजन आरोग्य देना नहीं जानता। दवा रोग मिटाना नहीं समझती, फिर भी उनकी जो निष्पत्ति आनी है, आयेगी। रोका नहीं जा सकता।
बाह्य रूप से ग्रहण किये पुद्गलों का जब इतना असर होता है तो आंतरिक वृत्ति से गृहीत कर्म पुद्गलों का आत्मा पर असर हो उसमें संदेह का अवकाश नहीं रहता।
विज्ञान के अप्रत्याशित विकास ने संदेह की दीवारों को तोड़ा है। ईथर (Ether) मेटर (Matter) धन विद्युत (Protons) ऋण विद्युत् (Electrons) आदि पारमाणविक विचित्र शक्ति और उसके नियमन की क्षमता को देखते हुए कर्मों की फलदान शक्ति पर स्वतः विश्वास जम जाता है।
उदीयमान कर्मों को अनुकूल सामग्री प्राप्त न हो तो कभी बिना फल प्रदान किये ही उदय होकर कर्म आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं। जैसे दंड, चक्रादि निमित्त कारणों के अभाव में मात्र मिट्टी से घट निर्मित नहीं होता। सहकारी कारण के अभाव में कर्म भी फल नहीं दे सकते ।४६
कर्मों की अपनी अवधि है। कौनसा कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ रहता है। प्रश्न होता है, स्थिति से पूर्व भी क्या फलदान कर सकते हैं ?
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन