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प्रश्न उठता है, कर्म फल दिये बिना ही अलग होते हैं या नहीं? जैन दर्शन की दृष्टि से समाधान मिलता है कि उदीयमान कर्मों को अनुकूल सामग्री उपलब्ध नहीं होती है तो बिना फल दिये ही उदय होकर आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं। इसे 'प्रदेशोदय' कहा जाता है।
जो कर्म, फल देकर आत्म-प्रदेशों से अलग होते हैं उसे 'विपाकोदय' कहते हैं। विपाकोदय ही आत्मगुणों का अवराधेक तथा नये कर्मों का उत्पादक है।
कर्म बंध के साथ ही फलदान की क्रिया प्रारंभ नहीं होती। बीज बोने के साथ ही अंकुर नहीं निकलता। बाजरा ९० दिन बाद, गेहूं १२० दिन और आम सामान्यतया पांच वर्ष बाद फल देता है। समयावधि के पूर्व फलदान की क्रिया नहीं होती।
इसी प्रकार कर्म बंध के बाद सत्ता में कुछ समय के लिये निष्क्रिय रहता है उसे अबाधाकाल कहते हैं।३७ .
अबाधाकाल सभी कर्मों का समान नहीं है। एक कोटाकोटि सागर के पीछे एक हजार वर्ष का होता है। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति तीस कोटाकोटि सागर है तो अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का होगा। यही नियम सब कर्मों के लिये हैकर्म
स्थिति
अबाधाकाल ज्ञानावरणीय कर्म ३० कोटाकोटि सागरोपम ३ हजार वर्ष दर्शनावरणीय कर्म ३० कोटाकोटि सागरोपम ३ हजार वर्ष वेदनीय कर्म
३० कोटाकोटि सागरोपम ३ हजार वर्ष मोहनीय कर्म
७० कोटाकोटि सागरोपम ७ हजार वर्ष आयुष्य कर्म ३३ कोटाकोटि सागरोपम करोड़ पूर्व का
तीसरा भाग नाम कर्म
२० कोटाकोटि सागरोपम २ हजार वर्ष गोत्र कर्म
२० कोटाकोटि सागरोपम २ हजार वर्ष अन्तराय कर्म
३० कोटाकोटि सागरोपम ३ हजार वर्ष कर्म विधान की सीमा क्या है? क्या जीव और जड़ दोनों पर उनका विधान लागू है ? प्रश्न उचित हैं। जैन दर्शन का इस संदर्भ में मन्तव्य है-कर्म का नियम आध्यात्मिक दृष्टि से सम्बन्धित है। भौतिक सृष्टि पर नियम लागू नहीं .१०८
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन