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संक्रमण के सम्बन्ध में भी बौद्धों की धारणा जैन दर्शन के अति निकट लगती है। बुद्ध ने कहा-विपच्यमान३२ अर्थात जिन कर्मों को बदला जा सके, ऐसे कर्मों का सातिक्रमण (संक्रमण) हो सकता है।
हिन्दू आचार शास्त्र में कर्मों की तीन अवस्थाएं अभिव्यक्त की हैं संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण। अहंकार, काम आदि से जो नये कर्मों का अनुग्रहण होता है, वे क्रियमाण हैं। क्रियमाण कर्म ही संचित में जाकर संकलित हो जाते हैं। जैसे-क्षेत्र में उत्पन्न धान्य कोठार में संगृहीत होता है। जो अनन्त कर्मों के अच्छे-बुरे फल अनुदयमान अवस्था में हैं, वे संचित कहलाते हैं।
___ संचित कर्मों में से एक जन्म से पूर्व ही जिनका निर्माण हो जाता है, उन फलदानोन्मुख कर्मों को प्रारब्ध कहा है। पूर्वबद्ध कर्म के दो विभाग हैं जो भाग अपना फल देना प्रारंभ कर देता है वह प्रारब्ध कर्म है। जिसका फलभोग प्रारंभ नहीं हुआ है, वह संचित कर्म है। ये तीनों अवस्थाएं ठीक जैन दर्शन में वर्णित बन्ध, सत्ता और उदय की समानार्थक हैं।
आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध मुख्यतः मन की प्रक्रिया पर आधारित है। मनोविज्ञान के आधार पर मनुष्य जो खाता है वह परिपाक होने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है। अति स्थूल अंश-पुरिष, मध्यम अंश-मांस, सूक्ष्मतम अंश-मन बनता है। जो जलपान किया जाता है उसका परिपाक होने पर सूक्ष्म अंश-मूत्र, मध्यम अंश-रक्त और अति सूक्ष्मतम अंश-प्राण बनता है।
वह जो तेज भोजन करता है उसका स्थूल अंश-अस्थि, मध्यम अंश-मज्जा, सूक्ष्मतम अंश-वाक् बनता है।
इस प्रकार मनुष्य के भोजन और जल का परिपाक ही मन, प्राण, वाक् है। मन, प्राण के साथ चंचल बनता है तब सारा व्यापार वाक्मय होता है। सोचना, विचारना, संकल्प-विकल्प, स्मृति आदि मन के उत्पादन हैं। प्राण कंपन के साथ मन और इन्द्रिय से संपृक्त होकर कर्म की निष्पत्ति करता है।
आधुनिक मनोविज्ञान के आधार पर हम जो भी कार्य करते हैं उनका सूक्ष्म चित्रण है। इस चित्र को अध्यात्म की भाषा में रेखा भी कहा जाता है।
डॉ. योवन्स लिखते हैं कि जब सूक्ष्मदर्शक यंत्र से मस्तिष्क का निरीक्षण किया तो एक-एक परमाणु पर असंख्य-असंख्य रेखाएं हैं। उनमें क्रियाशील अधिक हैं, क्रियाहीन कम। यही रेखाएं उपयुक्त समय पाकर साकार रूप धारण करती हैं जिसे कर्मफल कहते हैं। रेखाएं साकार उसी प्रकार बनती हैं जैसे गाने
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-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन