________________
बद्धस्पृष्ट-आत्मा और कर्म पुद्गलों का दूध-पानी की तरह एक हो जाना बद्धस्पृष्ट अवस्था है।
बद्धस्पृष्ट, ऐसी अवस्था है जिसमें उद्वर्तना एवं अपवर्तना को छोड़कर और किसी दूसरे कारण की संभावना नहीं रहती।
२. सत्ता—कर्मों का बंध हो जाने के बाद उनका विपाक किसी भी समय हो सकता है। काल-मर्यादा परिपक्व नहीं होती वहां तक कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध रहता है। इसी का नाम सत्ता है।२८ जब तक कर्म क्षय या निर्जरा की स्थिति पैदा न हो जाये। कर्मों का अकर्म पुद्गल रूप में परिवर्तन न हो जाये, तब तक आत्मा में अवस्थिति रहती है।
३. उदय-यह तीसरी अवस्था है। इसमें कर्म अपना फल देना प्रारंभ कर देते हैं। जैन दर्शन की विशेष बात यह है कि कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो फल देकर भी भोक्ता को उसकी अनुभूति नहीं कराते, वैसे ही निर्जरित हो जाते हैं। उसे प्रदेशोदय कहा जाता है। जो कर्म फलानुभूति देकर निर्जरित होते हैं उनका उदय विपाकोदय कहलाता है।
४. उदीरणा—नियत काल से पूर्व प्रयत्न के द्वारा कर्म दलिकों को उदय में लाकर, उदयप्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। जैसे-समय से पूर्व कृत्रिम साधनों से फलों को पकाया जाता है। उदय एवं उदीरणा में अन्तर क्या है? इसे समझना जरूरी है। उदय में कर्मों का परिपाक होने पर कर्म स्वयं फल देते हैं। उदीरणा में अनुष्ठान द्वारा अपरिपक्व कर्मों को पका कर फल प्राप्त किया जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक पद्धति का रूप है। एक बात और है कि जिस कर्म का उदय या भोग चल रहा है, उसकी सजातीय प्रकृति की ही उदीरणा संभव है।
५ उद्वर्तना-काषायिक तरतमता के आधार पर अनुभाग और स्थिति बनती है। किसी निमित्त से अनुभाग और स्थिति में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना है।
६. अपवर्तना—यह उद्वर्तना की विपरीत स्थिति है। पूर्व संचित कर्मों की स्थिति और अनुभाग को साधना द्वारा कम कर देना अपवर्तना है।
७. संक्रमण-कर्म आठ हैं। सबके अवान्तर भेद हैं। अवान्तर सजातीय कर्म प्रकृतियों का परस्पर रूपान्तरित होना संक्रमण है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी माना है कि कुत्सित मनोवृत्तियों को उदात्त मनोवृत्तियों में रूपान्तरित करना उदात्तीकरण है। उदात्तीकरण की प्रक्रिया को भी केवल सजातीय
.१०४
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन