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अशुद्ध अवस्था में जीव और पुद्गल की प्रत्येक पर्याय में निमित्तनैत्तिक सम्बन्ध है । निमित्त में जैसी अवस्था होती है, वैसी ही नैमेत्तिक में होगी। इसमें काल-भेद नहीं। दोनों अवस्थाएं एक साथ होती हैं। जैसा पूर्व बंधे हुए कर्मों का निमित्त होगा वैसे ही जीव के परिणाम होंगे और परिणामानुसार ही नये कर्मों का बंधन होगा। इस प्रकार निमित्त के अनुकूल अवस्था का धारण करना ही नैत्तिक है। यह अनादिकालीन श्रृंखला है। संसार परिभ्रमण का यही हेतु है ।
आधुनिक विज्ञान का अभिमत है कि बिना पौद्गलिक स्पंदन (Vibration) के विचारों का उद्भव नहीं होता । इन लहरों की लम्बाई अत्यन्त सूक्ष्म होती है। जितने रेडियो स्टेशन हैं, एक जैसी विद्युत की लहरें हवा में उत्सर्जन करते हैं। लम्बाई में अंतर होता है।
जब कभी बाहर के स्टेशन से सुनना चाहते हैं तो एक घुंडी को घुमाकर सेट के अंदर उतनी ही लम्बाई की लहरें उत्पन्न करते हैं । रेडियो सेट में जिस लम्बाई की लहरें उत्पन्न होती हैं उतनी ही लंबी लहरें बाहर से अंदर आ जाती हैं। वैसे ही अच्छे-बुरे विचारों के अनुसार पुद्गल वर्गणा बाहर से भीतर आ जाती है, आत्मा पर आवरण डाल देती है। कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि रेडियो ट्यूनिंग के समय बाहर से कोई पुद्गल द्रव्य, रेडियो के अंदर आता है। इसी प्रकार पुद्गल वर्गणा के भीतर प्रवेश को कर्मों का आस्रव ( Influx) कहते हैं। इससे आत्मा विकारी बनती है।
जीव में भावनात्मक या चैतन्यप्रेरित क्रियात्मक कम्पन्न होता है। कम्पन अचेतन वस्तुओं में भी होता है, किन्तु यह चैतन्यप्रेरित नहीं, नैसर्गिक है । आन्तरिक वर्गणा द्वारा निर्मित कम्पन में बाहरी पौद्गलिक धाराएं संपृक्त होकर क्रिया-प्रतिक्रिया से परिवर्तन करती रहती हैं । क्रियात्मक शक्ति-जनित कम्पन से आत्मा और कर्म-परमाणुओं का संयोग होता है। इस प्रक्रिया का नाम आस्रव है।
बन्धनका हेतु पूर्वबद्ध कर्म - वर्गणाओं को नहीं मानें तो अबद्ध जीव कर्म से बंधे बिना नहीं रह सकता । अतः पूर्व कर्म-वर्गणाएं नई वर्गणाओं को आकर्षित करती हैं। चिंतन जैसा है वैसी वर्गणाओं का ग्रहण होता है।
संसार अनंत वर्गणाओं का समवाय है। कर्म भी अमुक प्रकार के परमाणुओं का संग्रह है। प्रश्न होता है - अनन्त परमाणु का संयोग कैसे होता है ?
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन