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जैन दर्शनानुसार यद्यपि कर्म स्थितिबंध की समाप्ति पर फल देते हैं किन्तु जिस प्रकार आम आदि फलों को असमय में घास आदि में पकाकर रस देने योग्य कर दिया जाता है उसी प्रकार स्थिति पूर्ण होने से पूर्व तपश्चर्या आदि के द्वारा कर्मों को पकाकर स्थिति से पूर्व फलदान के योग्य कर देते हैं।४७
कर्मों के फलदान का कार्य पूर्ण हो जाता है तब वे कहां रहते हैं ? क्या पुनःउदयावस्था में आकर फल दे सकते हैं? यह भी चिन्तनीय प्रश्न है।
तथ्य यह है, आत्मा और कर्म की सहावस्था में ही फलदान की शक्ति रहती है। फल देने के बाद आत्मा से अलग होने पर वह सामर्थ्य नहीं रहता।४८ फल पककर यदि डाल से नीचे गिर जाता है तो पुनः उसके साथ आबद्ध नहीं होता। कर्म की भी यही स्थिति है। आत्मा से विलग होकर कर्म पर्याय से अकर्म पर्याय में रूपान्तरित हो जाते हैं।
आत्मा और कर्म समान से प्रतीत होते हैं किन्तु प्रमुखता किसकी है? इस संदर्भ में उपाध्याय अमर मुनि ने लिखा-जैसे सूर्य सायं मेघों को उत्पन्न करता है। उनसे आच्छादित होता है। फिर वही सूर्य अपनी प्रखर ज्योति से उन्हें छिन्न-भिन्न कर देता है। आत्मा भी स्वयं कर्म करता है। उनसे आवृत हो जाता है और स्वयं ही उन कर्मों को तोड़ कर निर्जरा से निर्मूल कर देता है ।१९
देवेन्द्र मुनि के अभिमत से- मात्र बाह्य दृष्टि से कर्म बलवान प्रतीत होते हैं किन्तु अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान है। क्योंकि कर्मों का कर्ता वही है। मकड़ी की तरह कर्मों का जाल बिछाकर उसमें उलझ जाता है। वह चाहे तो कर्मों को काट भी सकता है।५० अतः आत्मा की शक्ति असीम है। आत्मा की शुभाशुभ प्रवृत्ति की उपज कर्म है। कर्म शब्द अनेकार्थी है।
कर्म शब्द का अर्थ है-कार्य, क्रिया और प्रवृत्ति आदि। आचार्य देवेन्द्र सूरि के शब्दों में- जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है।
मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है, वही कर्म है।५२ आवश्यक नियुक्ति में कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों को कर्म कहा है।५३ पौराणिकों ने व्रत-नियम को कर्म कहा है। कारक परिधि में कर्ता का व्याप्य कर्म है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म आत्मा की मलिनता का हेतु है, इस आधार पर कर्म के कुछ नाम मलिनता के द्योतक हैं-पंक, मइल्ल, कलुष, मल आदि।
कर्म दुःख परम्परा का निमित्त है इसलिये कारण में कार्य की औपचारिकता की दृष्टि से क्लेश, असात्, खुह, दुप्पक्खं आदि शब्द कर्म के वाचक हैं। कर्म के पर्यायवाची और भी शब्दों का उल्लेख मिलता है। कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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