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कारणों का उल्लेख है। द्वितीय'२ श्रुतस्कंध में भी कर्म बंधन के हेतुओं का निरूपण है। इससे सिद्ध है कि आचारांग सूत्र के आधार पर सम्पूर्ण लोक कर्मस्रोतों से परिव्याप्त है।
आत्मा के साथ कर्म का बंध कैसे होता है ? किन कारणों से होता है ? कर्म आत्मा के साथ कितने समय तक रहते है ? आत्मा के साथ लगे हुए कर्म कितने समय तक फलदान में असमर्थ हैं ? आदि अनेक प्रश्नों का समाधान कर्मवाद से ही संभव है।
अन्य दार्शनिकों ने कर्म बंध के संदर्भ में अनेक भिन्न-भिन्न कारणों को प्रस्तुति दी है। भारतीय दर्शन में कर्म
वेदान्त में कर्म बंध का हेतु अज्ञान, सांख्य में ज्ञान का विपर्यय अज्ञान, बंध का हेतु है। न्याय-वैशेषिक में बंध के हेतु-राग-द्वेष, मोह हैं। राग से काम, मात्सर्य, स्पृहा, तृष्णा और लोभ-ये पांच दोष उत्पन्न होते हैं। द्वेष से क्रोध, ईर्ष्या, असूया, तृष्णा और आमर्ष आदि। इन दोषों से संसार बंध होता है। मोह इनमें प्रधान है क्योंकि मोह से ही अविद्या, राग-द्वेष का उद्भव है।
वैशेषिक दर्शन में अविद्या के चार कारण हैं-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्न । योग दर्शन में बंध का कारण है-क्लेश। क्लेशों का मूल अविद्या है। सांख्य दर्शन का अविद्या शब्द, योग दर्शन के क्लेश के समकक्ष है। क्लेश पांच हैं१३– तमस, मोह, महामोह, तामिस्र, अंधकार।
जैन दर्शन में बंध का हेतु आस्रव भी माना है। जैन आगम साहित्य में उसके पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग। विपर्यय, क्लेश, अविद्या, और मिथ्यात्व इनमें काफी अर्थ-साम्य है। क्लेश पांच हैं, आश्रव भी पांच हैं। पांच क्लेशों की तुलना सांख्य के पांच तत्त्वों से भी की जा सकती है। जैसेसांख्य
योग
जैन दर्शन अविद्या
तमस्
मिथ्यात्व अस्मिता मोह
अविरति राग
महामोह
प्रमाद द्वेष
तामिस्र
कषाय अभिनिवेश
अन्ध तमिस्र योग कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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