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तात्पर्य यह है कि शरीर का निर्माता जीव है। क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है। आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न वीर्य को क्रियात्मक शक्ति कहा है। अतः शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म का बंध करता है। अतः दोनों बंध के कारण हैं। स्थानांग और प्रज्ञापना में कर्म बंध का कारण कषाय है ।१७ समवायांग'८ में कषाय और योग, भगवती' में प्रमाद और योग तथा गोम्मट सार२० में चार कारणों का उल्लेख है।
यदि बन्धनों के प्रमुख कारणों की मीमांसा करें तो मूलभूत तीन कारण हैं-राग-द्वेष, मोह। बौद्ध दर्शन में आस्रव तीन हैं-काम, भव, अविद्या। अविद्या-मिथ्यात्व, काम-कषाय और भव-पुनर्जन्म के समानार्थी शब्द हैं। आस्रव के सम्बन्ध में दोनों में मतभेद नहीं है। बौद्ध दर्शन२१ में लोभ, द्वेष और मोह को भी बंधन का निमित्त माना है। बंधन की मूलभूत त्रिपुटी का सापेक्ष सम्बन्ध भी है। अज्ञान (मोह) के कारण राग-द्वेष की प्रवृत्ति होती है। राग-द्वेष यथार्थ ज्ञान से वंचित कर देते हैं। अविद्या से तृष्णा बढ़ती है। तृष्णा से मोहयह एक वर्तुल है।
गीता में आसुरी सम्पदा को बंधन का हेतु माना है। दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य (कठोरवाणी) एवं अज्ञान आसुरी सम्पदा हैं। कर्म वर्गणा के आकर्षण का निमित्त रागादि भाव हैं। जीव की स्वाभाविकता जब भंग होती है तब कर्मावरण की दीवार खड़ी हो जाती है। राग-द्वेष की स्निग्धता लोह चुम्बक की तरह कर्माणुओं को आकृष्ट करती है तब उनका आत्मा के साथ संश्लेष हो जाता है।
समवायांग२२ और तत्त्वार्थ सूत्र में बंध के चार भेदों का विश्लेषण है-प्रकृति-बंध, स्थिति-बंध, अनुभाग-बंध, प्रदेश-बंध।
प्रकृति-बंध-रागादि भावों से आकर्षित कर्माणुओं के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति-बंध है। कर्मों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं। अपने-अपने स्वभाव सहित जीव से सम्बन्धित होना प्रकृति-बंध है। यह स्वभाव व्यवस्था है। कर्म परमाणु कार्य भेद से आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। क्योंकि कर्म की मूल प्रकृतियां आठ ही हैं।
स्थिति-बंध-यह काल-मर्यादा की व्यवस्था है। कोई भी कर्म अपनी काल-मर्यादा के अनुसार ही आत्मा के साथ रहता है। स्थिति समाप्त होते ही आत्मा से पृथक् हो जाता है। स्थिति-बंध का आधार कषाय की न्यूनाधिकता है। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता