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पुद्गल में एक आकर्षण शक्ति है। धरती एवं नक्षत्रों का आकर्षण यथार्थ सत्य है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्युत् चुम्बकीय तरंगें व्याप्त हैं। उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश' में कार्मण वर्गणा के परमाणु तरंगों के रूप में फैले हुए हैं।
___ आत्मा में पूर्व स्थित कर्म वर्गणा कषायों की न्यूनाधिकता के आधार पर आत्म-प्रदेशों को स्पंदित करती है। कंपन एवं स्पंदन क्रिया से कर्म-परमाणुओं में आकर्षण-विकर्षण की प्रक्रिया चलती है। जो पुदगल कर्म रूप में परिणत होते हैं उन्हें कार्मण वर्गणा कहते हैं। कर्म पुद्गल पदार्थ हैं, अचेतन हैं, किन्तु जब जीव के साथ संश्लिष्ट होते हैं तब उनकी स्थितिज ऊर्जा (Potantial energy) बढ़ जाती है। कर्मों की स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा (Kinetic energy) में रूपान्तरित करने वाले मिथ्यात्व आदि आस्रव निमित्त हैं।
कर्म की अव्यक्त शक्ति जीव को बंधन में रखती है। वह शक्ति प्रकाश, ध्वनि और विद्युत तरंगों से सूक्ष्म और इलेक्ट्रॉन एवं प्रोटोन से अनंत गुणा सूक्ष्म है।
बंधन क्या है ?
___ इसका शाब्दिक अर्थ है-जुड़ना, बंधना, मिलना, संयुक्त होना। बंध दो या दो से अधिक परमाणुओं का होता है। जीव अपने वैभाविक भावों से कर्मपरमाणुओं का बंध करता है। राग-द्वेष के योग से कर्म परमाणु आत्मा के साथ संपृक्त होने पर केमिकल कम्बिनेशन (Chemical Combination) रासायनिक सांयोगिक प्रक्रिया होती है उसे बंध कहते है। बंध भी पुद्गल की ही एक पर्याय है। जीव और कर्म का एक क्षेत्रावगाही हो जाना या दोनों का व्यवस्थाकरण ही बंध है। बंध दो प्रकार का है-प्रायोगिक और वैस्रसिक।
जीव और कर्म का सम्बन्ध प्रयत्नसाध्य है इसलिये प्रायोगिक है। बादलों का संयोग वैस्रसिक है क्योंकि वह स्वाभाविक है।
उमास्वाति के मन्तव्य से कषाय भाव के कारण जीव का कर्म पुद्गलों में आक्रांत हो जाना ही बंध है। जैन दर्शन में बंधन की और अनेक परिभाषाएं उपलब्ध हैं। आचारांग में कर्म-स्रोतों की चर्चा विविध रूप में मिलती है। उसमें कहीं अतिपात स्रोत (हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह) को", कहीं त्रियोग रूप स्रोत (मन,वचन,काया की प्रवृत्ति), कहीं मात्र हिंसा को , कहीं अज्ञान और प्रमाद को, कहीं राग को , कहीं मोह को°, कहीं लोभ, कहीं कामासक्ति को कर्म-स्रोत के रूप में माना है। जहां जैसा प्रसंग आया तदनुरूप उन
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन