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अनात्मवाद को सिद्ध करने वाला एक प्रसंग उल्लेखनीय है। अग्निवेश गोत्री सच्चक साधु ने तथागत से पूछा-आप शिष्यों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं ? तथागत-मैं रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, अनित्य दुःख और अनात्म की शिक्षा देता हूं। प्रतीत्य समुत्पाद में कार्य-कारण के सिद्धांत को विश्लेषित करते हुए कहा- सभी वस्तुएं परिवर्तन धर्मा हैं। अनित्य हैं। आत्मा भी अनित्य है। कारण की सत्ता पर कार्य का अस्तित्व है। यदि कारण की परम्परा का निरोध कर दिया जाये तो अपने-आप चलने वाली मशीन की तरह कार्य स्वतः निरोध हो जायेगा। मूल कारण है- अविद्या । यही दुःख की जनक है।
अविद्या से संस्कारों की उत्पत्ति होती है। संस्कारों से चेतना का, चेतना से नाम-रूप, नाम-रूप से पांच इन्द्रिय और मन, इनसे संपर्क, संपर्क से संवेदना, संवेदना से उत्कट अभिलाषा, तृष्णा से आसक्ति, आसक्ति से क्रियमाणता तथा उससे जन्म, जरा, मृत्यु, शोक, रुदन, दुःख, विषाद, निराशा आदि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अविद्या समस्त दुःख समुच्चय की निदान है। अविद्या का विनाश, दुःख समुच्चय का विनाश है।४५ समीक्षा
बुद्ध ने मानसिक अनुभव तथा विभिन्न प्रवृत्तियों को स्वीकार किया है किन्तु आत्मा को रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान-इन पांच स्कंधों से भिन्न पदार्थ नहीं माना। आत्मा एक प्रवाह है। प्रवाह कैसा ? नदी और दीपक के उदाहरण से स्पष्ट किया है। पाश्चात्य यूनानी दर्शनिक 'हेरेक्लाइट्स' (Hereclitus) ने कहा-हम किसी नदी में दो बार नहीं उतर सकते। कारण-धारा सतत् गतिमान है। जिस पानी में पैर रखा, वह आगे निकल गया। यह कहना गलत होगा कि जिस पानी में पैर रखा उसी में पैर रख रहे हैं। पानी वह नहीं, हमें केवल भ्रम होता है।
दीपक की ज्योति शिखा में भी ऐसा ही प्रतिभासित होता है। एक क्षण में पूर्व लौ का विलय, उत्तर का आविर्भाव है। हमें कुछ प्रतीत नहीं होता किन्तु हर लौ में भिन्नता है। मनुष्य के शरीर में जो प्रवाह है, वही आत्मा है। हर एक व्यक्ति में नाम, रूप, मन और शरीर हैं। शरीर स्थायी पदार्थ नहीं, वैसे मन भी। विचार एवं अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तन हमें आकृष्ट करते हैं, कुछ समय बाद विलुप्त हो जाते हैं। अनुभव होता है, कोई स्थिर आत्मा है जो अवस्थाओं को बांधकर रखती है। यह धारणा युक्तियुक्त नहीं है। आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा