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शंकराचार्य ने आत्मा को एक और जीव को अनेक कहा है। क्योंकि आत्मा ब्रह्म या परम तत्त्व है, जब देहावस्थित होती है तब जीव रूप में जानी जाती है। देहस्थ आत्मा की जीव संज्ञा है।
जीव का शरीर से संयोग जन्म और वियोग मृत्यु है। परमेश्वर और जीव में स्वामी-सेवक जैसा सम्बन्ध है। ब्रह्म का औपाधिक स्वरूप जीव है। जीव
और ब्रह्म में वस्तुतः अभेद होते हुए भी जो भेद है वह उपाधिमूलक है। निरुपाधिक अवस्था में ब्रह्म, सोपाधिक अवस्था में जीव है।
वेदान्त में ब्रह्मात्मा को एकान्त नित्य माना है और जीवात्मा के सम्बन्ध में अलग-अलग मन्तव्य हैं। शंकराचार्य के अतिरिक्त सभी वेदान्तियों ने जीवात्मा को ब्रह्म का विवर्त न मानकर परिणामी नित्य कहा है।
शंकराचार्य ने आत्मा को उपाधियों के कारण ही कर्ता-भोक्ता माना है। जैन दर्शन में इससे भिन्न आत्मा को यथार्थ रूप से कर्ता-भोक्ता माना है।
मोक्ष के सम्बन्ध में जैन और वेदान्त की धारणा समान है। दोनों ने ही मोक्ष को अभावात्मक न मानकर भावात्मक माना है तथा आत्मा की जीवनमुक्ति
और विदेहमुक्ति में विश्वास करते हैं। वेदान्तियों ने आत्मा को व्यापक, निरवयवी तथा निष्क्रिय कहा है वहां जैन दर्शन में अव्यापक, सावयवी तथा सक्रिय कहा है। वेदान्त में कर्मफल ईश्वराधीन है। जैन दर्शन कर्मफल प्राप्ति में ईश्वरीय सत्ता को मान्य नहीं करता। औपनिषदिक चिंतन एवं जैन दृष्टि
भारतीय तत्त्वज्ञान का मूल स्रोत है- उपनिषद्। इसे आध्यात्मिक मानसरोवर की भी संज्ञा दी जाती है, जिससे ज्ञान की विविध सरिताएं प्रवाहित होकर आर्यावर्त को सरसब्ज बनाती रही हैं। उपनिषदों में आत्मा के स्वरूप का चित्रण सुन्दर ढंग से किया है। आत्मा का अस्तित्व वर्तमान जीवन तक ही है या जीवन की समाप्ति के बाद भी बना रहता है? कठोपनिषद् में इसका समाधान उपलब्ध है।
बालक नचिकेता ने यमराज से यही आग्रह किया था। मृत्यु गूढ़ रहस्य है, उसका यथोचित विवेचन कर यमराज ने उसे समाहित किया।
आत्मा नित्य वस्तु है, वह कभी मरती नहीं। इस पर रमणीय रूपक प्रस्तुत है- यह शरीर रथ है। बुद्धि सारथि है। मन प्रग्रह (लगाम) है। इन्द्रियां घोड़े हैं जो विषय रूपी मार्ग पर चलती हैं और आत्मा रथ का स्वामी है।६८
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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