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यम ने आत्मा को रथी कहकर आत्मा की श्रेष्ठता प्रस्थापित की। माण्डुक्य उपनिषद् में शुद्ध आत्मा को “ तुरीय" बतलाया है। जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति - उसी आत्मा की विभिन्न अवस्थाएं है। पहली अवस्था जागते समय होती है। इसमें सिर्फ बाह्य वस्तुओं का अनुभव किया जाता है। दूसरी, स्वप्नावस्था में आभ्यन्तर जगत् का अनुभव होता है। इसमें आत्मा सूक्ष्म वस्तुओं का आनन्द लेती है । ६९
तीसरी अवस्था गाढ़ निद्रा की है। इसमें न स्वप्न आते हैं, न कुछ इच्छा होती है। इस अवस्था में आत्मा कुछ समय के लिये ब्रह्म के साथ एकाकार होकर आनन्द का उपभोग करती है । ७०
माण्डूक्य उपनिषद् में कहा है - स्वप्नरहित निद्रावस्था भी आत्मा की उच्चतम अवस्था नहीं, चौथी " तुरीय" अवस्था विशुद्ध, आन्तरिक चैतन्य की अवस्था है। इसमें बाह्य - आभ्यन्तर किसी प्रकार के पदार्थों का अनुभव नहीं रहता । जागृति आदि तीनों अवस्थाओं से पृथक् है।
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अरस्तु के लेखांश में इस संदर्भ के विचार मिलते हैं- 'जब कभी आत्मा अकेली रहती है, जैसे निद्रावस्था में, तो अपनी यथार्थ प्राकृत अवस्था लौट आती है। आत्मा को ब्रह्म और सत् भी कहा गया है। कुछ सूक्त इसके प्रमाण है। सर्वं खलु इदं ब्रह्म १२, अयम् आत्मा ब्रह्म .७३ अहं ब्रह्म अस्मि । ७४ यहां ब्रह्म और आत्मा एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं
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अध्ययन से आत्मा की प्राप्ति नहीं होती, न मेधा से । इसे योगी लोग आभ्यन्तर ज्योति के प्रकाश के क्षणों में प्राप्त करते हैं ।
वह स्थूल है, न अणु, न क्षुद्र है, न विशाल, न अरुण है, न द्रव, न छाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न अंतर है, न बाहर है ७६ ।
आत्मा एक सार्वभौम सत्ता है। अनुभूति का विषय है। वेदों के युग में मनुष्य प्रकृति प्रेमी थे किन्तु उपनिषद् के युग में चिंतन की दिशा अन्तर्मुखी बन जाती है। आत्म ज्ञान की अपेक्षा महसूस होती है। नारद ने कहाभगवन्? मैं ऋग्वेद को जानता हूं, यजुर्वेद को और सामवेद को जानता हूं । इसके साथ मुझे मंत्रों और पवित्र ग्रन्थों का भी अध्ययन है किन्तु मैं आत्मा को नहीं जानता |
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा
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