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'It is a thing that doubts, understands, affirms, denies, wills, refuges, imagines also and perceives.........all other properties belong to my nature.' आत्मा का अस्तित्व न हो तो क्रियाएं नहीं हो सकेंगी। अस्तित्व सिद्धि के देकार्त ने दो प्रमाण प्रस्तुत किये हैं-प्रातिभ प्रमाण और अखंडनीयता। १. प्रातिभ प्रमाण-आत्मा स्वयं प्रकाशमय है। उसका ज्ञान प्रातिभ है। 'मैं
हूं' यह अनुभव प्रातिभ ज्ञान से होता है। प्रामाणिकता के लिये अन्य
साक्षी की अपेक्षा नहीं। २. अखंडनीयता-आत्मा का अस्तित्व अखंड है। अविभाज्य (Indivisible)
है। शाश्वत (Eternal) है। अभौतिक (Immaterial) है।
देकार्त द्वैतवादी है। उसने चित् (आत्मा), अचित् (शरीर)-दो तत्त्वों का निरूपण किया है। दोनों विरोधी गुण वाले हैं। आत्मा का गुण चैतन्य है, शरीर का गुण विस्तार है। देकार्त ने भी यह स्वीकार किया है।
प्रश्न होता है कि दो विरोधी तत्त्वों का साथ में सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है ? सम्बन्ध न मानें तो द्वैतवाद निराधार बन जाता है। इस समस्या का समाधान वह क्रिया-प्रतिक्रियावाद के आधार पर करता है। इस अन्तःक्रिया से पारस्परिक आदान-प्रदान चलता है। आत्मा का निवास उसने पीनियल ग्रन्थि में माना है। यहीं से सारे शरीर में वह प्रकाशित होती है।
देकार्त का प्रिय विषय गणित था। वह चाहता था, गणित की तरह दर्शन की नींव सुदृढ बने। गणित प्रणाली का विकास नहीं होता तो संदेहरहित सत्य की उपलब्धि असंभव थी। गणित में निश्चयात्मकता है। २४२=४ को कोई संदेह से नहीं देखता। यह सर्वमान्य सत्य है।
देकार्त के मत में संदेह साधन एवं सत्य साध्य है। परीक्षा के बिना वे किसी सत्य को मानने के लिए तैयार नहीं थे। संभवतः यूरोपीय इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संदेह की कसौटी पर सत्य को कसा।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक '(The discourse on method)' में सत्य को परखने के चार विकल्प सुझाये हैं• हम किसी भी विषय की प्रामाणिकता तब तक स्वीकार न करें, जब तक
उसकी परीक्षा न हो जाये। • किसी भी विषय की सत्यता प्रमाणित करने के लिये उस विषय को
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन