________________
प्रत्यक्ष है। शरीर रूपी सेट के मस्तिष्क रूप ट्रांस्फॉर्मर और परदे हैं। उन पर ज्ञान की ऊर्मियां, अनुभूति, स्मृति आदि अभिव्यक्त होते हैं। मस्तिष्क मूल शक्ति नहीं, मूल शक्ति है - चेतना (आत्मा) जो हाई फ्रिक्वेन्सी तरंग की तरह अदृश्य रहकर कार्य करती है। चैतन्य शक्ति के बिना शरीर-सेट सक्रिय नहीं हो सकता।
टेलीविजन सेट का उपयोग करते-करते ट्यूबें घिस जाती हैं। ट्रांस्फॉर्मर बिगड़ जाता है तो तरंगें मृत सेट से प्रसारित नहीं होतीं । नये सेट का आश्रय पाकर उस सेट के परदे को सजीव बना देती हैं। शरीर और आत्मा का सम्बन्ध भी ऐसा ही है। आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिए अयोग्य और जीर्ण शरीर का त्याग कर नया शरीर चुन लेती है। पूर्व शरीर का नाश होने से उस पर कोई असर नहीं पड़ता। केवल अभिव्यक्ति के लिये शरीर की अपेक्षा है।
जैसे- टेलीविजन से हाईफ्रिक्वेन्सी विद्युत तरंगें भिन्न हैं वैसे ही शरीर और आत्मा भिन्न हैं ।
पाश्चात्य देहात्म सम्बन्ध, जैन दर्शन
क्रिया-प्रतिक्रियावाद का प्रवर्तक देकार्त, निमित्तवाद का ग्यूलिंक्स तथा मेलेब्रान्स, समानान्तरवाद का स्पिनोजा और पूर्व स्थापित सामंजस्यवाद का लाइबनीज । इन्होंने देहात्म सम्बन्ध में किसी-न-किसी रूप में ईश्वर को मुख्यता दी है। जैन दर्शन ने ईश्वर को मान्य नहीं किया, उसके स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित किया है।
जब आत्मा राग-द्वेषादि भावों से कर्म का बंधन करता है, शब्द से ऐसा अभिव्यंजित होता है कि आत्मा ने ही कर्मों को बांधा है, कर्मों ने आत्मा को नहीं । किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है । जिस प्रकार आत्मा कर्मों को बांधता है, उसी प्रकार कर्म भी जीव (आत्मा) को बांधते हैं। पंचाध्यायी में कहा है- 'जीवः कर्म निबद्धोहि जीव बद्धं हि कर्म तत् ' (१०४)
आत्मा मूर्त कर्मों का अवगाहन करता है । उस परिपाक को पाकर मूर्त कर्म भी आत्मा का विशिष्ट रूप से अवगाहन करते हैं ।
देकार्त ने आत्मा और शरीर को पूर्ण विरोधी माना है किन्तु जैन दर्शन में पूर्ण विरोध नहीं। शुद्धात्मा शरीर से मुक्त होती है। उसका शरीर से विरोध है। संसारी आत्मा का विरोध नहीं क्योंकि संसारी आत्मा कार्मण शरीर से मुक्त
जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
• ८२