________________
(स्थूल शरीर, जो अन्न से निष्पन्न है), प्राणमय कोष (शरीर के अन्तर्गत वायु तत्त्व), मनोमय कोष (मन की संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया), विज्ञानमय कोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया), आनन्दमय कोष (आनन्द की स्थिति)।१० तत्त्वार्थ और ठाणांग में शरीर का विस्तृत वर्णन है।
शरीर की परिभाषा इस प्रकार है-"प्रतिक्षण शीर्यन्ते इति शरीराणि' जो प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता है, गलन स्वभाव है, संसारी आत्माओं का निवास स्थान है, जिसके द्वारा चलना-फिरना आदि गत्यात्मक क्रियाएं होती हैं, वह शरीर है।
अथवा-“पौद्गलिक सुख-दुखानुभव साधनं शरीरम्।” जो पौद्गलिक सुख-दुःख रूप अनुभूति का साधन है, वह शरीर है। जीव के शरीर की रचना, शरीर नाम कर्म के उदय से होती है। शरीर नाम कर्म पाँच प्रकार का है-औदारिक आदि।१२
औदारिक शरीर—जो रक्त-मांस, अस्थि-मज्जा, रज आदि धातुओं और उपधातुओं से निर्मित है तथा वात-पित्त-श्लेष्म, स्नायु-शिरा, जठराग्नि प्रभृति इस शरीर की संपत्ति हैं। शरीर से आत्मा अलग होने पर भी यह शरीर टिका रहता है। इसका छेदन-भेदन भी हो सकता है। धातु-उपधातु के संतुलन पर इसका अस्तित्व रहता है। देवता और नारक जीवों के अतिरिक्त अन्य संसारी जीवों के यह शरीर होता है।
__ वैक्रिय शरीर—जिस शरीर से छोटे-बड़े, सूक्ष्म-स्थूल, एक रूप-अनेक रूप आदि विक्रियाएं की जाती हैं, वह वैक्रिय शरीर है। यह दिव्य गुण-ऋद्धियों से युक्त होता है।१३ एकत्व और पृथकत्व ऐसे विक्रिया के दो प्रकार हैं। अपने शरीर को सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूपों में परिवर्तित करना एकत्व विक्रिया है।
अपने शरीर से भिन्न मकान, नगर, मंडप आदि उपस्थित करना पृथकत्व विक्रिया है। देवताओं और नारकी जीवों के ये शरीर भवोत्पन्न हैं। ये लब्धिजन्य भी होते हैं एवं प्रतिघातरहित हैं।
आहारक शरीर-चतुर्दश पूर्वधर मुनि अपनी जिज्ञासा समाहित करने हेतु दूर संचार में इसका प्रयोग करते हैं। तपस्या आदि विशिष्ट साधना से प्राप्त योग शक्ति से इस शरीर का निर्माण होता है। गति अप्रतिहत है। उत्पत्ति स्थान है- मस्तिष्क।१४ शरीर का वर्ण अति विशिष्ट शुभ स्फटिक के समान अति धवल होता है। आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
.८४
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन