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उसके अंग-प्रत्यङ्गों में विभक्त कर देना चाहिये। इससे समस्या का
समाधान संभव है। • हमें समस्या के सरल भाग से प्रारंभ कर जटिल की ओर अग्रसर होना
उचित है। • किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पूर्व, दिल में पूर्ण विश्वास होना जरूरी
है कि समस्या का कोई पहलू छूट नहीं गया है जिससे निष्कर्ष में कहीं गलती न रह जाये।
तुलनात्मक दृष्टि से देकार्त के विचार जैन दर्शन से काफी साम्य रखते हैं। जैन दर्शन में जीव और पुद्गल-दो तत्त्वों का निरूपण है। देकार्त ने उन्हें चित् और अचित् की संज्ञा दी है तथा आत्मा को अभौतिक और पुद्गल को भौतिक माना है। देकार्त ने भी चित् को अभौतिक तथा अचित् को भौतिक माना है।
जैन दर्शन में आत्मा कार्य-कारण की श्रृंखला से मुक्त है क्योंकि उत्पत्तिविनाश से परे है। जिसकी उत्पत्ति होती है वह तत्त्व कार्य-कारण से मुक्त नहीं रह सकता। आत्मा नित्य है। शाश्वत है। देकार्त ने भी आत्मा को नित्य, शाश्वत, विभु तथा उत्पत्ति-विनाश से परे कहा है।
देकार्त के मत में संदेह सत्य तक पहुंचने का सोपान है। संशय से ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है। जैन दर्शन में भी संशय द्वारा आत्मा की सिद्धि का उल्लेख मिलता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अभिमत से 'जीव है या नहीं' यह संशय ज्ञान है। ज्ञान जीव है। संशयकर्ता भी चेतन है, अचेतन नहीं। अतः विशेषावश्यक भाष्य में संशय द्वारा आत्मा की सिद्धि की है।
आचार्य अकलंक देव ने तत्त्वार्थ वार्तिक में कहा है कि जिसका अस्तित्व नहीं, उसके विषय में संदेह नहीं हो सकता। 'आत्मा है' यह ज्ञान यदि संशय रूप है तो आत्मा की सत्ता स्वतःसिद्ध है।
देकार्त का अभिमत भी यही है कि सबमें संदेह किया जा सकता है किन्तु संदेह में संदेह करना संभव नहीं। संदेह का अस्तित्व संदेह से परे है। संदेह का अर्थ विचार करना है। विचारक के अभाव में विचार कौन करेगा ?
विचार साम्य के साथ कुछ ऐसे प्रश्न भी हैं जो जैन दर्शन के साथ मेल नहीं खाते। जैसे देकार्त ने आत्मा को अभौतिक मानकर उसका निवास पीनियल ग्लैण्ड में बताया है। किन्तु अभौतिक आत्मा का पीनियल में निवास कैसे हो सकता है ? जैन दर्शन आत्मा को देह-परिमाण मानता है। पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान : समन्वय की भूमिका -