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synthetic unity of pure apperception अर्थात् आत्मा अतीन्द्रिय, समन्वयात्मक, अद्वय- विशुद्ध, अपरोक्षानुभूति रूप है।
काण्ट आत्मा को व्यावहारिक जगत का तत्त्व न मानकर उसका निवास परमार्थ जगत में स्वीकार करता है।
आत्मा को अतीन्द्रिय कहा है । इन्द्रियों का विषय मूर्त है। आत्मा अमूर्त है। इन्द्रियों की पहुंच से परे है। बुद्धि और वाणी से भी अवक्तव्य है। यहां काण्ट के विचार जैन दर्शन के अति निकट हैं। जैन दर्शन में भी आत्मा को अमूर्त माना है। द्रव्य संग्रह में आत्मा की अमूर्तता सिद्ध करते हुए लिखा है
वण्ण, रस, पंच, गंधादो, अट्ठणिच्चया जीवे । णो संति असुति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो । ।
अर्थात पुद्गल वर्ण, गंधादि से युक्त और मूर्त हैं। आत्मा इनसे मुक्त, अमूर्त है।
कट ने आत्म को समन्वयात्मक (सिन्थेटिक) इसलिये कहा कि यह हमारे अनुभवों, विज्ञानों को एक सूत्र में बांधता है। इसलिये अनुभवों में एकरूपता दिखाई देती है। आत्मा एक है, अनेक नहीं है।
आत्मा ज्ञेय नहीं, ज्ञाता है । ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं बनता। कहा भी है- The subject can not be reduced to an object. ज्ञाता न हो तो ज्ञान संभव नहीं है। संग्रहण, समन्वय, सम्बन्ध, सार्वभौमता, नियम, नियमितता आदि सब ज्ञाता के कारण ही अस्तित्व में हैं । काण्ट की मान्यता जैन दर्शन से कहीं समानता रखती है, कहीं असमानता ।
ने आत्मा को अमूर्त स्वीकार किया है। जैन दर्शन भी आत्मा को अमूर्त ही कहता है। काण्ट के मत में परमार्थ आत्मा पूर्ण है, जैन दर्शन में समस्त कर्मों से मुक्त आत्मा पूर्ण है । असमानता के बिन्दु हैं- काण्ट ने आत्मा को केवल ज्ञाता रूप कहा है, जैन दर्शन ज्ञाता और ज्ञेय उभय रूप मानता है । काण्ट ने आत्मा को अप्रत्यानुभूति (Apperseption) रूप मानकर ज्ञान के सभी माध्यमों को नकार दिया। जैन दर्शन ने आत्मा के ज्ञान को प्रमाण द्वारा स्वीकार किया है। जैन दर्शन के अनुसार सत् मात्र का ज्ञान संभव है। अज्ञेय सत् कुछ भी नहीं । ने एकात्मवाद को महत्त्व दिया, जैन दर्शन में अनंत आत्माओं की मान्यता है। प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं। जैन दर्शन में आत्मा का सूक्ष्म जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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