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अभिमत था कि जहां दो द्रव्य होते हैं वहां कार्य-कारण सम्बन्ध रहता है। जब देह और आत्मा अलग ही नहीं तो कार्य-कारणवाद की उपयोगिता ही क्या ? दोनों समानान्तर हैं। दोनों संयोगी नहीं, सहयोगी हैं। सहयोगी और समानान्तर होने के कारण जो कुछ आत्मा में घटित होता है वही शरीर में और जो शरीर में घटित होता है वही आत्मा में घटित होता है । जैसे शरीर में कोई बीमारी होती है तो मन में तदनुरूप विचार उठता है।
अतः समान स्तर होने से एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं । किन्तु दोनों भिन्न नहीं, एक ही ईश्वर के अंश हैं। देकार्त के द्वैतवाद से स्पिनोजा सहमत नहीं था। वह अद्वैतवाद का समर्थक रहा।
किन्तु उसका समानान्तरवाद भी अनेक कठिनाइयों से घिरा हुआ है । पहली कठिनाई यह है कि देह और आत्मा एक ही ईश्वर के अंश हैं। फिर एकदूसरे के बाधक नहीं होने चाहिएं। लेकिन मानसिक क्रिया में शारीरिक बाधा देखी जाती है।
दूसरी बात यह है-जहां शारीरिक क्रिया है वहां मानसिक क्रिया अवश्य होगी, चाहे कितनी भी भिन्न हो। इससे तो शरीर की क्रियाओं में ही नहीं, भौतिक तत्त्वों में भी मनस की सत्ता को मान्य करना पड़ेगा जो हृदयंगम होने जैसा तथ्य नहीं । अतः देहात्म समस्या से जुड़ा यह सिद्धांत सही नहीं लगता क्योंकि उसके पास भी उचित समाधान नहीं है।
पूर्व स्थापित सामंजस्य (Pre-established Harmony) (1646 ई. से 1716 ई.)
बहु-तत्त्ववादी लाइबनीज की अवधारणा देकार्त, स्पिनोजा, ग्यूलिंक्स, और मेलेब्रान्स से अलग है। वह आत्मा और शरीर को न तो पृथक् मानता है, एक द्रव्य का गुण । अपितु दोनों को चैतन्य रूप मानता है।
उसने दुनिया में एक चेतना की सत्ता ही स्वीकार की है। लाइबनीज ने कहा- जड़ में भी ईषत् चेतना रहती है। उन्होंने जड़-चेतन का भेद नहीं माना। देह के चिदणु और आत्म चिदणु परस्पर निर्भर नहीं हैं। इनमें परस्पर कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं होती । न समानान्तर गुण हैं। केवल पूर्व स्थापित सामंजस्य है। देह- आत्मा के सम्बन्ध में उसने ईश्वर की इच्छा को अपेक्षित नहीं समझा। स्पिनोजा ने ईश्वर के योगदान को स्वीकार किया। लाइबनीज का ईश्वर इतना सक्षम है कि उसे बार-बार सम्बन्ध हेतु हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता बल्कि ऐसी व्यवस्था है जिससे सदा सामंजस्य बना रहता है।
पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका
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