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अलग नहीं मानता था। देकार्त ने दोनों की निरपेक्ष सत्ता स्वीकार की। दोनों का अंतर कई बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया हैआत्मा
शरीर विवेकी
अविवेकी अविभाज्य
विभाज्य अमूर्त
चित्
अचित्
चेतन
अचेतन अभौतिक
भौतिक द्रष्टा
दृश्य यह मान्यता दर्शन जगत में अन्तक्रियावाद के नाम से प्रसिद्ध है।
शरीर और आत्मा की इतनी निरपेक्षता में भी परस्पर होने वाले कार्य सहज प्रश्न पैदा करते हैं कि परस्पर क्रिया कैसे होती है ? मन का शरीर पर और शरीर का मन पर प्रभाव कैसे पड़ता है ?
देकार्त ने शरीरशास्त्रीय दृष्टि से समाधान दिया कि दोनों का परस्पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन दोनों का सम्बन्ध सेतु मस्तिष्क के अग्रभाग में स्थित पीनियल ग्रन्थि है। ऐच्छिक कार्यों के अवसरों पर आत्मा प्रवर्तक होता है। आत्मा क्रियाशील होता है। उससे पीनियल सक्रिय हो जाता है। फलतः मस्तिष्क और शरीर गतिशील हो उठते हैं। पुरातत् नाड़ी के माध्यम से शरीर और आत्मा आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। यही अन्तक्रियावाद का पर्याय है।
लाइवनीज मन और शरीर में कार्य-कारण भाव स्थापित कर इस उलझन को सुलझाने की दिशा में बढ़ा है। उसके मत से शरीर और मन स्वतंत्र रूप से अपनी-अपनी क्रियाएं करते हैं। शरीर का कार्य नियत कारणों से होता है, उसी प्रकार मानसिक कार्य भी अपने विशिष्ट कारणों से संपादित होते हैं। दोनों में कोई किसी को प्रभावित नहीं करता। लाइवनीज ने घड़ी के उदाहरण से स्पष्ट किया। एक घड़ीसाज दो अलग-अलग घड़ियां बनाकर उनमें ऐसी व्यवस्था देता है जिससे दोनों समान रूप से समय को सूचित करती हैं। उसी प्रकार ईश्वर ने शरीर और मन की रचना इस प्रकार की है कि एक में जो घटित होता है उसकी प्रतिक्रिया दूसरे में झलकती है। शरीर और मन मूलतः स्वतंत्र हैं। उनमें क्रिया-प्रतिक्रिया का आधार पूर्व स्थापित सामंजस्य है।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन