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आत्मा कर्मों का भोग करने के लिये पूर्व शरीर का त्याग कर परलोक गमन करती है। मीमांसक भी इसका समर्थन करते हैं किन्तु मुक्ति विषयक धारणा में विरोध है।
अद्वैत वेदान्त और जैन दर्शन
जैन और अद्वैत वेदान्त में आत्मा सम्बन्धी अवधारणा में विभिन्न समानताएं और असमानताएं परिलक्षित होती हैं। शंकराचार्य के अभिमत से दुनिया के समस्त व्यवहारों का आधार आत्मा है। आत्मा का निराकरण नहीं होता, निराकरण बाहर से आदान की हुई वस्तु का होता है। परिवर्तन ज्ञाता का नहीं, ज्ञातव्य का ही होता है । ज्ञाता सदा अपने स्वरूप में वर्तमान रहता है । विषय के अनुभव में विषयी की सत्ता स्वतः प्रमाणित है।
आत्मा ज्ञान रूप है और ज्ञाता भी । ज्ञान और ज्ञाता अभिन्न हैं । ज्ञेय पदार्थ की उपस्थिति में ज्ञान ही ज्ञाता रूप से प्रकट हो जाता है । ज्ञेय के अभाव में ज्ञाता भी निरस्तित्व बन जाता है। एक ही ज्ञान कर्ता और कर्म सम्बन्ध से भिन्न प्रतीत होता है किन्तु वह अभिन्न है । 'आत्मा - आत्मानं जानाति' यह सूक्त इसका प्रमाण है।
रामानुज ने ज्ञान को नित्य - अनित्य दोनों माना है । अनित्य ज्ञान केवल वृत्ति मात्र होता है जो विषय के सन्निकर्ष से पैदा होता है और विषय के विलय होने पर विलय हो जाता है । कर्ता रूप ज्ञान सदा विद्यमान रहता है।
आत्मा ही एकमात्र सत्ता है । विश्व की सत्ता केवल व्यवहार के लिये है । विषय और विषयी का पार्थक्य परमार्थतः न होकर केवल व्यवहार मात्र है । देश - कालकृत भेद भी काल्पनिक हैं, वास्तविक नहीं । अखण्ड सत्ता एक ही है । जो उसे जानता है वही तत्त्वज्ञानी है। आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है, अनात्मा है।
आत्मा और जीव-दोनों एक ही सत्ता के सूचक हैं। जैन दर्शन इनमें भेद नहीं करता । वेदान्त में आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा दी है और जीव से भिन्न माना है। जैन दर्शन में संसारी आत्मा का जो स्वरूप है वही वेदान्त में जीव का है । दोनों में समानता है।
वेदान्त में आत्मा को सत् चित्, आनन्द और ज्ञानमय कहा है। जैन दर्शन में सत्, चित, आनन्द के साथ अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य को भी आत्मा का स्वरूप स्वीकार किया है।
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा
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