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पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान : समन्वय की भूमिका
कोsहं, कथं, केन, कुतः समुद्गतो ? यास्यामि चेतः क्व शरीर संक्षये । किमस्ति चेहागमने प्रयोजनं ?, वासोऽत्र मे स्यात् कति वासराणि ? ।।
अर्थात् मैं कौन हूं ? कैसे ? किस कारण ? कहां से आया हूं? शरीर नाश होने पर कहां जाऊंगा ? यहां आने का उद्देश्य क्या है ? कितने दिन यहां निवास है ? यह आत्मा के अनुसंधान का संकेत है।
इस चिंतन पर विशाल साहित्य का सृजन हुआ, फिर भी आत्मा इतना गूढ तत्त्व है कि रहस्य अनावृत नहीं हो सका ।
बालक जन्म लेता है। बुद्धि विकास के साथ जैसे-जैसे नई वस्तुओं को खोजता है। यही वृत्ति प्रौढ़ावस्था में विकसित होकर सृष्टि का अणु-अणु एवं स्व-अस्तित्व को जानने को उत्कंठित रहती है। सत्य का अन्वेषण तत्त्वज्ञों का प्रमुख लक्ष्य रहा है ।
भारतीय मनीषियों की तरह पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी सत्य की शोध पूरे मनोयोग के साथ की है। तत्त्व के प्रति रुझान और सत्य की जिज्ञासा का उद्भव सर्वप्रथम दो देशों में हुआ-भारत और यूनान । यूनान तत्त्वज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी जगत में गुरु स्थानीय माना जाता है।
ज्ञान का अन्वेषण स्वयं ज्ञान है। ज्ञान की प्राप्ति पश्चिमी दर्शन का चरम लक्ष्य है। किन्तु भारतीय दर्शन के अनुसार ज्ञान साधन है, साध्य नहीं । दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति और निर्वाण की उपलब्धि परम ध्येय है। उसे पाने का साधन है- ज्ञान। ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ' ज्ञान के अभाव में मुक्ति नहीं ।
पाश्चात्य दर्शन का प्रारंभ भौतिक तत्त्वों के चिन्तन-मनन एवं विश्लेषण से होता है। थेलीज से जार्जियस तक प्रायः सभी दार्शनिकों का बहिर्मुखी चिंतन रहा है। अन्तर्मुखी चिंतन में प्लेटो का नाम सर्वप्रथम आता है। यद्यपि एनेक्जेगोरस का नाम भी आता है, किन्तु आत्म तत्त्व का समुचित विवेचन सर्वप्रथम प्लेटो ने किया था।
पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका
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