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परमाणु पुद्गल पर्यायों के परिवर्तन में भी मूल सत्ता उसकी शाश्वत है। परमाणु की तरह जीव भी अनन्त धर्मात्मक है। चेतन का जड़ अत्यन्त विरोधी है। इसलिये जड़ का चेतन में, चेतन का जड़ में गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता। गीता में कहा है- "नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः''अर्थात् असत् उत्पन्न नहीं होता, सत् का नाश नहीं होता।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में गुणात्मक परिवर्तन असत् की उत्पत्ति सिद्ध करता है। लोकायत जड़ भूतों के संयोग से चैतन्य की निष्पत्ति मानता है। भौतिकवादी जड़ तत्त्वों के संघर्ष से। दोनों समानान्तर रेखा पर हैं। भौतिकवादियों के अभिमत को लोकायत का एक नया संस्करण कह सकते हैं।
असत् की उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिये उन्होंने हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के संयोग से निष्पन्न जल का उदाहरण प्रस्तुत किया किन्तु दोनों गैसों का सम्मिश्रण गुणात्मक परिवर्तन है ही नहीं। क्योंकि दो विरोधी स्वभावों से तीसरे नये गुण का पैदा होना अनिवार्य है। जल का निर्माण तीसरा गुण नहीं कह सकते, यह तो एक का दूसरे में विलीन होना है। अगर जलत्व को तीसरे गुण के रूप में मान्यता भी दे दें तो भी जड़ से आत्मा का आविर्भाव वाली बात कतई हृदयंगम नहीं हो सकती। और गुणात्मक परिवर्तन भी अपनी निश्चित स्थिति पर पहुंच कर ही होता है। बर्फ बनते समय पानी धीरे-धीरे गाढ़ा नहीं बनता, बल्कि टेम्प्रेचर गिरते हुए जैसे ही हिम बिन्दु ३० फार्नहाइट : सेन्टीग्रेड पर पहुंचता है, बर्फ बन जाता है। पानी गर्म होते हुए २०० डिग्री फार्नहाइट पर जाकर भाप बन कर उड़ जाता है। बर्फ और भाप बनने की सीमा है। वैसे ही गुणात्मक परिवर्तन भी निश्चित परिमाण पर ही होता है। भौतिकवादी भले ही रोचक और सटीक उदाहरण से सिद्ध कर दें कि गुणात्मक परिवर्तन, जहां असत् पैदा होता है, उसे ही कहते हैं। किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने सारे परिवर्तन अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सहज धर्म माने हैं। चैतन्य जैसी वस्तु का उत्पादक जड़ तत्त्व न कभी हुआ, न कभी होगा। यह वन्ध्या-पुत्र जैसी हास्यास्पद बात है।
जड़-चेतन का आत्यन्तिक विरोध है। सत्य के ठोस आधार पर ही तत्त्व का प्रतिपादन किया है। इसलिये दावे के साथ कह सकते हैं कि यह जड़ पर चेतन की, विज्ञान पर दर्शन की तथा पश्चिम पर पूर्व की विजय है।
भारतीय तत्त्व दर्शन के उदय और अनुदय के साथ यात्रायित होने पर इस पड़ाव पर पहुंचते हैं कि परस्पर विचारभेद है। खण्डन-मण्डन की नीति भी आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा