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सांख्य दर्शन में आत्मा को चैतन्य स्वभाव कहा है लेकिन ज्ञान-स्वरूप स्वीकार नहीं करते। ज्ञान स्वरूप अचेतन प्रकृति का परिणाम है। आचार्य अमितमति ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है-'आत्मा यदि ज्ञानरहित है तो ज्ञानपूर्वक होने वाली सारी क्रियाएं असंभव हो जायेंगी।'६० ___पुरुष को चैतन्य स्वरूप स्थापित कर ज्ञानरहित मानना विरुद्ध है। यदि ऐसा है तो घटादि पदार्थ भी ज्ञानवान होने चाहियें क्योंकि वे भी प्रकृति के परिणाम हैं। किन्तु ऐसा लक्षित नहीं होता।६१ अतः ज्ञान को आत्मा का स्वरूप मानना ही उपयुक्त है।
बिना किसी चेतन के अचेतन में क्रिया की उत्पत्ति नितांत असंभव है। आत्मा की उपस्थिति में हाथ की लेखनी लेखन व्यापार में प्रवृत्त होती है। रथी न हो तो रथ की गति हो नहीं सकती। तब अचेतन प्रकृति में प्रवृत्ति का उदय कैसे होगा?
सांख्य दर्शन इसका समाधान इस प्रकार देता है जैसे गाय के स्तन में बछड़े के लिये दूध नैसर्गिक उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अचेतन प्रकृति बिना किसी बाह्य कारण स्वयं परिणाम उत्पन्न करती है। किंतु यह उदाहरण उचित
और न्यायसंगत नहीं लगता। गाय चेतन है। बछड़े के प्रति आत्मीय भाव है। पुरुष की इस प्रकार प्रकृति को सहायता नहीं मिलती। क्योंकि सांख्य दर्शन में पुरुष निष्क्रिय और उदासीन है।
सांख्य दर्शन में आत्मा कूटस्थ नित्य, अपरिणामी है। साथ ही, औपचारिक रूप से उसे भोक्ता भी स्वीकार किया गया है। विमर्शणीय यह है कि आत्मा अपरिणामी है तो शुभाशुभ कर्मों का बंध नहीं हो सकता। कूटस्थ नित्य है तो न ज्ञानादि की उत्पत्ति संभव है, न हलचल रूप क्रिया ही हो सकेगी। आत्मा में जब किसी प्रकार का विकार ही नहीं, फिर ज्ञान, संयम, तप, समता आदि की क्या संभावना होगी? मोक्षादि का अभाव होगा।६२
निर्विकारी आत्मा में मन, शरीर और अर्थ के सन्निकर्ष से होने वाला ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेगा तथा अर्थ क्रिया नहीं होने से आत्मा अवस्तु ही सिद्ध होगी।६३ क्योंकि सांख्य में उत्पत्ति-विनाश से रहित सदा एकरूप रहने को नित्य कहा है।
आत्मा में जो भी क्रिया होगी, अवस्थान्तर से ही संभव है। पूर्व अवस्था को छोड़ उत्तर अवस्था धारण करना होता है जो कूटस्थ नित्यवाद में संभव नहीं।६४
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा
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