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गीता ३६ आदि में भी आत्मा को अछेद्य, अभेद्य, अक्लेद्य, अहन्तव्य माना गया है ।
जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक स्वीकार किया गया है। उसका समग्रता से स्पर्श करने वाला ज्ञान प्रमाण और विषय के किसी एकांश तक सीमित रहने वाला ज्ञान नय कहलाता है। नय को स्वतंत्र रूप से प्रमाण न कहकर प्रमाणांश कहा है।
नय दो प्रकार का है- निश्चय और व्यवहार । आत्मा के स्वरूप का विवेचन दोनों नयों से किया गया है। निश्चय नय से आत्मा का स्वरूप हैस्वयंभू, ध्रुव, अमूर्तिक, निरपेक्ष, अजर, अमर, अविनाशी, अव्यक्त, अचल, वर्ण-गंधादि से मुक्त, स्वाश्रित, सत्-चित्- आनन्दमय, अतीन्द्रिय, अनादिनिधन |
नियमसार ३७ समयसार ३८, इष्टोपदेश३९,
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परमात्म-प्रकाश४०. आत्मानुशासन”, तत्त्वसार" आदि में जैनाचार्यों ने आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निश्चय नय से विवेचन किया है।
व्यवहार नय से आत्मा शुभाशुभ कर्म का कर्ता और सुख-दुःखादि फलों भोक्ता है।
आत्मा एक स्वतंत्र अस्तित्त्व है। अस्तिकाय है। असंख्यात चैतन्यमय प्रदेशों के संघात का नाम आत्मा है। आत्मा अस्तिकाय है और उसके भी प्रदेश हैं। महावीर की यह बिल्कुल नई एवं मौलिक स्थापना है। आत्मा का मौलिक स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता ।
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दैनिक घटनाओं के अन्वीक्षण-परीक्षण से यह तथ्य और ज्यादा स्पष्ट हो जाता है। ऑक्सीजन, हाइड्रोजन का सम्मिश्रण जल है, वह ० / १०० डिग्री तापमान पर वाष्प बनता है । अत्यधिक शैत्यता में मेघ बनकर कार्बन (Carbon), नाइट्रोजन (Nitrogen) आदि तत्त्वों से संपृक्त हो वर्षता है । फलों के मधुर रस में परिणमन करता है। फल भोग्य बनकर शरीर में रक्त - मज्जा आदि सात धातुओं में रूपान्तरित हो जाता है । उसका द्रव्यत्व सुरक्षित है। रूपान्तरित होने पर भी द्रव्यत्व का आत्यन्तिक विनाश नहीं, केवल अभिधाएं बदलती हैं। यह पदार्थ की महत्ता की अभिव्यंजना है। इसके अस्वीकार से विश्व - व्यवस्था विघटित हो जाती है।
आत्मा के स्वरूप सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों में कुछ मतभेद हैं। अतः उनके सिद्धान्तों की मीमांसा और समीक्षा भी कर लेना अपेक्षित है। मूल रूप से छह विचारधाराओं का अस्तित्व आचार्य हरिभद्र ने मान्य किया है- बौद्ध, आत्मा का स्वरूप जैन दर्शन की समीक्षा
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