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प्रजापति- - एक-दूसरे की आँखों में, पानी में तथा दर्पण में देखने से जो कुछ दिखाई देगा, वही आत्मा है ।
इस समाधान से विरोचन समाहित हो गया किन्तु इन्द्र का मन आशंकाओं से भर उठा। मन में सोचा, आंख आदि में देखने से जो शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ता है। शरीर में कुछ कमी होगी तो क्या आत्मा में नहीं होगी ? यदि शरीर नष्ट हुआ तो आत्मा भी नष्ट हो जायेगी ? यह प्रश्न बार-बार अन्तर्मन को कुरेद रहा था । पुनः आशंका व्यक्त की ।
प्रजाः- जो स्वप्नों में विचरण करता है, वह आत्मा है । इन्द्र का मन फिर भी आश्वस्त नहीं हुआ। क्योंकि स्वप्नों में विहरण करने वाला शरीर की कमियों से भले प्रभावित न हो पर स्वप्नों का असर अवश्य होगा ।
प्रजापति ने तीसरी बार समाहित करते हुए कहा- जो स्वप्नरहित गहरी नींद का आनन्द लेता है वही आत्मा है।
यह परिभाषा भी इन्द्र को मान्य नहीं हुई । कारण- गहरी नींद ऐसी स्थिति है, जिसमें वह न कुछ देख सकता है, न अनुभूति कर सकता है। यह शून्यता की स्थिति है। प्रवृत्ति मात्र इसमें बंद रहती है । इन्द्र की जिज्ञासा शांत नहीं हो सकी।
प्रजापति इन्द्र की जिज्ञासा एवं योग्यता से काफी प्रभावित थे । अन्ततः उत्तर दिया- शरीर, स्वप्न में विहरण करने वाला, गहरी नींद का आनंद लेने वाला, इनमें से कोई भी आत्मा नहीं है। आत्मा, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति का आधार अवश्य है, किन्तु इनसे परे है वही आत्मा है । यह सबसे बड़ा विषयी है जो कभी विषय नहीं बनता ।
इन्द्र की तरह न जाने कितने चिंतकों के मन को इस प्रश्न ने आन्दोलित एवं तरंगित किया है। फलतः अनुसंधान हुआ । निष्कर्ष सामने आया कि अन्नमय आत्मा, जिसे शरीर कहते हैं, रथ के समान है। उसका संचालक रथी ही वास्तविक आत्मा है । २६
इससे विदित हो गया कि आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। आत्मा प्रकाश रूप है । ज्योति स्वरूप है । २७ नित्य है । चिन्मात्र है।
जैन दर्शन के समान ही कठोपनिषद् ", माण्डूक्योपनिषद्°, वृहदारण्यकोपनिषद३१, ब्रह्मविघ्नोपनिषद्३, श्वेताश्वतरोपनिषद् २४, सुबालोपनिषद् ३५, और भागवत
• जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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मुण्डकोपनिषद्” केनोपनिषद्२,
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