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अनुभवः - प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव होता है। 'मैं हूं' मैं काला हूं, या गोरा हूं। मैं ज्ञाता हूं। मैं सोचता हूं। इससे आत्मा का सहज बोध होता है।
ज्ञान:- यह ज्ञान और ज्ञाता स्वरूप है, इसलिये आत्मा को ज्ञान कहा है। ज्ञान से ज्ञाता, दृष्टि से द्रष्टा अभिन्न होता है । ज्ञेय पदार्थ के आविर्भूत होने पर ज्ञान ही ज्ञाता रूप में बन जाता है ।
चित्तः - दैनिक जीवन की तीन अवस्थाएं हैं- जागृत, स्वप्न, सुषुप्त । इन तीनों अवस्थाओं में आत्मा की उपस्थिति बनी रहती है। वही आत्मा का रूप है। आत्मा चेतना स्वरूप होने से उसे 'चित्त' कहा है।
संवित्तः - आत्मा स्व प्रकाश्य है । ब्रह्म से अभिन्न है, इसलिये उसे संवित्त कहा है।
इस प्रकार उपनिषदों में भी आत्मा के कई पर्याय उपलब्ध हैं। जैसे‘छान्दोग्योपनिषद् में आत्मा शब्द के लिये, सुतेजा, वैश्वानर (५.१२।१), विश्वरूप (५|१३|१), सत्य ( ६ ८७, ६|९|४), मन (७|३|१), चित्त (७|५|२), ब्रह्म, अमृत (८|१४|१) आदि शब्दों का प्रयोग है।
तैत्तिरीयोपनिषद् में आकाश (१/७/१, २/२/१), योग (२|४|१), आनंद (२|५|१), बृहदारण्यकोपनिषद् में ब्रह्म (२|४|६, १९), पुरुष (२/५/१४), आकाश (३|२|१३), अन्तर्यामी, अमृत (३/७/३), प्राज्ञ ( ४/३/२१ ), अविनाशी (४|५|१४) । ' ( साभार तुलसी प्रज्ञा से उद्धृत, पृ. ३१६)।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में अनन्त, विश्वरूप, अकर्ता (१९), सर्वव्यापी (१।१६) आदि शब्दों से अभिहित किया है। उपनिषदों में जीव को वैयक्तिक आत्मा (Individual Self) तथा आत्मा को परम आत्मा (Supreme Self) के रूप में कहा गया है। जो एक ही शरीर की हृदय गुहा में निवास करती है।
ऋग्वेद" में मन, आत्मा एवं 'असु' शब्द का प्रयोग चेतन तत्त्व के लिये किया है। अभिधान चिंतामणी ९६ शब्द कोश में आत्मा के लिये क्षैत्रज्ञ 'आत्मा' पुरुष, चेतन शब्द तथा जीव के लिये भवि, जीव, असुमान्, सत्त्व, देहभृत्, न्यु, जंतु आदि का व्यवहार किया है।
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स्थानांग में प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व शब्दों की संगति जीव अर्थ में मिलती है।
व्यवहार में भी पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व, चेतना, ज्ञानी, पुरुष आदि। इनकी नियुक्ति से भिन्न अर्थ - पर्यायों
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन