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ईश्वरवादियों ने इसे ईश्वर की कला माना है। सांख्यदर्शन में प्रकृतिपुरुष का संयोग इसका कारण है। लोकायत मतानुसार पांच भूतों के संयोजन से आत्मा का अस्तित्व सामने आया और इनके विलय के साथ ही आत्मा की समाप्ति हो जाती है।
उपनिषद् में कहा- ब्रह्म ने अग्नि, समिधा, सूर्य-सोम, पृथिवी, औषधियों आदि का निर्माण किया। औषधियों से वीर्य और वीर्य से विभिन्न प्राणियों की सृष्टि हुई।
जैन दर्शन जीव को अनादि-निधन मानता है। जीव की सत्ता अनादि है। तब जीवोत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। जीवोत्पत्ति का जो क्रम है वह संसारी जीवों का अवस्थान्तर है।
सत्य शोध की दो दृष्टियां हैं-दार्शनिक और वैज्ञानिक। हम दोनों दृष्टियों से विचार करेंगे। दार्शनिक दृष्टि से भगवती का प्रसंग मननीय है। प्रश्न हैजीव पहले बना या अजीव ? लोक पहले बना या अलोक ? इन प्रश्नों का उत्तर मुर्गी और अण्डे के उदाहरण से दिया गया है। अण्डे से मुर्गी पैदा हुई या मुर्गी से अण्डा ? इन दोनों में कोई क्रम नहीं बनता। अपश्चानुपूर्वी कहकर शास्त्रकारों ने प्रश्न को समाहित किया है। क्योंकि ये शाश्वत हैं। शाश्वत में पहले-पीछे का क्रम नहीं बनता।
मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी यह कार्य-कारण सम्बन्ध है और त्रिकालवर्ती है। जैसे-बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज की शाश्वत परम्परा है।
तथागत बुद्ध के सामने भी ऐसे प्रश्न उपस्थित हुए थे किन्तु उन्होंने उच्छेदवाद एवं एकान्त शाश्वतवाद से बचने के लिये अव्याकृत और असमीचीन कहकर टाल दिया। महावीर ने कहा-अवक्तव्यता भी निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष ही है। जो अवाच्य है, वह वाच्य भी है। जो वाच्य है, वह अवाच्य भी है। उसमें वाच्यता एवं अवाच्यता दोनों ही सापेक्ष रूप में निहित हैं।
जमाली ने भी लोक एवं जीव की शाश्वतता का प्रश्न उठाया था। महावीर ने कहा-जमाली ! 'जीव और लोक कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा'ऐसी बात नहीं। वे नित्य-अनित्य दोनों हैं। द्रव्य दृष्टि से शाश्वत हैं। पर्याय या भाव दृष्टि से अशाश्वत।७९
निष्कर्ष है-जीव का अस्तित्व, जीव का स्वरूप और जीवोत्पत्ति का आदि बिन्दु सर्वज्ञ द्वारा भी अवक्तव्य है। आत्मा को अनादि मानने वालों के .२४.
-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन