Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(घटनाहीनता का दोष अवश्य है, किन्तु प्राचीन युग की कथा में इस दोष का रहना स्वाभाविक है । जिज्ञासा और कुतूहल तत्व भी इस कथा में नहीं है )
इस कथा का सबसे प्रधान तत्त्व है, इसकी पारिवारिकता । परिवार की सुखद और एकान्त स्थिति के बीच ही धर्म की प्रतिष्ठा चित्रित करना तथा गृहस्थावस्था में भी श्रवधिज्ञान की उत्पत्ति दिखलाना, गौतम का श्रहंभाव को छोड़कर गृहस्थ आनन्द से क्षमा याचना करना इस कथा के सामाजिक परिवेश का प्रमाण हैं । एक ही कथा में पुनर्जन्म, त्याग की महिमा, जातिगत भेद-भावों के प्रति उपेक्षा श्रादि सबका चित्रण कर द ेना कथा संयोजना की दृष्टि से इस कथा की विशेषता है । धर्म और उपदेश के भार से प्राच्छन्न होने पर भी इस कथा में रूप विन्यासात्मक कथोपकथन की शैली के दर्शन होते हैं ।
कामदेव की कथा में अन्य बातें आनन्द की कथा के समान होने पर भी / पिशाच द्वारा उसकी दृढ़ता की परीक्षा लेना और नाना प्रकार के उपसर्ग पहुंचाने पर भी उसका अविचलित रहना एक नवीन घटना है, जो इस कथा के कथानक को गतिशील बनाने के साथ उसमें यथेष्ट कथारस का संचार करती है । पिशाच की आकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी वर्णन किया है, जिससे उसकी घोर मूर्ति पाठक के नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाती है । "सीसं से गोकिलंज- संठाण-संठियं, सालि सेल्लसरिसा से कैसा कविलतेएणं दिप्पमाणा, महल्लाउडिया कभल्लसं गणसंठियं निडालं, मगंसपुंछ व तस्स भुमगा फुग्गफुग्गा, विगयबी अच्छदंसणात्र, सीसघडि - विणिगायाइं अच्छीणि विगय भच्छ - दंसणाई कण्णा जह सुप्पकत्तरं चेव विगयबीभच्छ - दंसणिज्जा, उरब्भपुडसन्निभा से नासा, झुसिरा- जमल- बुल्ली - संठाण-संठिया दो वि तस्स नासापुड्या, घोड्यपुंछं व तस्स मंसूई कविलकविलाई विगबीभच्छदंसणाई, हत्थेसु अंगुलीओ'।
अर्थात् -- उस पिशाच का मस्तक गाय को खाना खिलाने के लिए जो बांस का बड़ा टोकरा रखा जाता है, उसको श्रौंधा करने से जैसा श्राकार बनता है, वैसा ही था । चावल के भूसे के समान पिंगल वर्ण के चमकीले उसके केश, मिट्टी के घड़े के कपालों के समान बड़ा ललाट, नौला या गिलहरी की पूंछ के समान बिखरी हुई भयंकर दोनों भौंह, घड़े के मुख जैसी विशाल और चमकीली प्रांख, अनाज फटकने के सूप के टुकड़े के समान कान, भेड़ की नाक के समान चिपटी नाक, दो मिले हुए चूल्हे के समान नासिका छिद्र, घोड़े की पूंछ के बालों के समान कठोर दाढ़ी-मूंछ के बाल, ऊंट के होठों के समान लम्बे-लम्बे होठ, लोहे की कुशा को समान लम्बे-लम्बे दांत, सूप के समान चौड़ी जिल्वा, हल को मूंठ के समान लम्बी और टेढ़ी ठोड़ी, लोहे की कड़ाही के मध्य भाग के समान कर्कश गाल, मृदंग के श्राकार के समान फैले हुए कन्धे, नगर के दरवाजे के समान विशाल छाती, अनाज भरने की कोठी के समान दोनों स्थूल भुजाएं, शिला के समान चौड़े हाथ एवं लोढ़ के समान हाथों की अंगुलियां थीं ।
(इस शब्द - चित्र के द्वारा पिशाच की भयंकर और बीभत्स श्राकृति का जीवन्त चित्रण किया गया है । इसके उपसर्गों के समक्ष प्रति साहसी व्यक्ति ही प्रडिग रह सकता है । ) इस पिशाच ने कामदेव श्रावक को और भी कई रूप धारण कर परीक्षा ली । इन समस्त घटनाओं में एकरूपता है, ये सभी कथावस्तु को मांसल बनाती हैं ।
चुलिनीपिता के समक्ष उपस्थित किये गये उपसर्गों की प्रक्रिया कामदेव के उपसर्गों की प्रक्रिया की अपेक्षा भिन्न है । इसके समक्ष मायावी देव न े मायावी रूप में उसके पुत्रों का बध दिखलाया है । जब वह धर्म से विचलित न हुआ तो उसने उसकी
१ --- उवासगदसा द्वि० प्र०, पृ०
१८-१६, गोरे द्वारा सम्पादित संस्करण ।
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