Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(८) दैनिक कृत्यों से सम्बद्ध--यथा सोने-जागने, नवीन वस्त्र तथा नवीन अन्न
प्रादि ग्रहण करने में नाना प्रकार के शकुन और टोटिक' सम्बन्धी मान्यताएँ परिगणित है। लोककथाओं में इन मान्यताओं का पाया जाना
प्रावश्यक-सा है। (१४) उपदेशात्मकता-- ___ लोककथाएं मनोरंजन के साथ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी उपदेश विशेष को सामने रखकर जन-जीवन को सखी और समृद्ध बनाती है। चरित्र, घटना प्रोर कथानक इन तीनों तत्त्वों का समावेश लोककथाओं में भी रहता है। आदिम मानव ने अपने जीवन तथा अनुभूतियों का चित्रण कथाओं में किया है, दर्शन और सिद्धान्तों में नहीं। हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में सांस्कृतिक सम्पर्क के व्यापक प्रभाव तथा वैचित्र्यपूर्ण कल्पनाओं के विस्तार ही नहीं विद्यमान है, अपितु लोकरुचि तथा लोकजीवन के प्रावों की एक झलक भी वर्तमान है। कथाएं प्रकाश की किरणों के समान है, जो सदा उसी माध्यम का रंग ग्रहण कर लेती हैं, जिसमें से होकर वे निकलती है। हरिभद्र ने सर्वस्वीकृत सामाजिक नियमों तथा बन्धनों के प्रति समुदाय की मौन मानसिक प्रतिक्रिया अपनी कथाओं के माध्यम से व्यक्त की है।
हरिभद्र ने अपनी कथानों में उन सार्वजनिक उपदेशों को निहित किया है, जो मानवमात्र की सम्पत्ति है तथा जिन उपदेशों से लोक-कल्याण और लोकोदय होता है। अहिंसा, सत्य और दान का माहात्म्य और स्वरूप जनमानस को स्वस्थ और मंगलमय बनाने में पूर्ण सक्षम है। हरिभद्र की प्रत्येक कथा में उपदेश अनुस्यूत है। हरिभद्र ने जीवन के कटु और मधुर अनुभवों की नीतिमूलक व्याख्या उपस्थित कर कथाओं में जीवन प्रेरक उपदेशों का विन्यास किया है।
(१५) अनुश्रुतिमूलकता---
लोककथाएं अनुश्रुतिमूलक होती है। प्रारम्भ में ये मौलिक रूप में पायी जाती हैं। कालान्तर में संस्कृति के विकास के साथ लोककथाएं मूलरूप में लिपिबद्ध होने लगती है। शनैः शनैः रूप परिवर्तन की इस क्रिया में साहित्यिक संस्कार भी पाने लगते हैं
और कथावस्तु के विकास में भी उचित दिशा परिवर्तन होने लगता है। इस प्रक्रिया द्वारा लोककथाओं में रूपगत और विषयगत परिवर्तन होने से अभिजात कयासाहित्य का जन्म होता है। इतना सब होने पर भी जिन कथाओं में अनुश्रुतिमूलकता है, वे ही लोककथाओं के अन्तगत हैं, इस तत्त्व के अभाव में लोकवार्ता का रूप सुरक्षित नहीं रह सकता है। हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में सर्वत्र अनुश्रुतिमूलकता विद्यमान है। प्रत्येक भव की कथा में प्रवान्तरकथा वक्ता-श्रोता के रूप में ही प्रारम्भ होती है
। नायक किसी कारणवश निविण्ण या खिन्न हो उपवन में मनोविनोदनार्थ जाता है, वहां उसे कोई प्राचार्य मिलते हैं। यह प्राचार्य की वन्दना कर उनसे विरक्त होने का कारण पूछता है और प्राचार्य अपनी विरक्ति को कथा-प्रात्मकथा के रूप में सुनाते है। इस कथा में भी वह अपने किसी गुण या प्राचार्य की प्राप्ति की बात कहता है और उस प्राचार्य द्वारा कही गयी कथा को हरा देता है। इस प्रकार श्रुत परम्परा से प्राप्त पावाएँ पंकित की गयी है।
पूख्यिान की कथाएं भी कही जाती है, घटित नहीं होती। पांचों धूतं अपने-अपने अनुभव को सुनाते हैं। प्रतः भवणीय तत्त्व की प्रधानता इनकी कथामों में विद्यमान है। मोककथा का यह वैशिष्ट्य इस बात का प्रमाण है कि हरिभद्र की प्राकृत कमाएं अभिबाल वर्ग की होती हुई भी मोक्कापामों ने प्रमिक दूर नहीं है।
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