Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत कथाओं का स्वतन्त्र रूप से विकास तरंगवती से प्रारम्भ होता है । हरिभद्र न तरंगवती और वसुदेवहिण्डी से रूपायन एवं उपादानों को ग्रहण कर अपनी महत्त्वपूर्ण कृति समराइच्चकहा का प्रणयन किया है । इतना सत्य है कि जिस प्रकार ईंट और सीमेंट का उपादान रहने पर भी इनसे निर्मित भवन का सौन्दर्य कुछ दूसरा ही होता है, उसी प्रकार उक्त ग्रन्थों से शैली और कतिपय उपादानों के ग्रहण करने पर भी हरिभद्र की इस कृति का सौन्दर्य कुछ अन्य ही हैं । इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र उच्च कोटि के कलाकार हैं । जितनी मननशीलता और गम्भीरता इनमें वर्तमान है, उतनी अन्य कथाकारों में शायद ही मिलेगी । धार्मिक कथानों के रचयिता होने पर भी जीवन की विभिन्न समस्याओं को सुलझाना और संघर्ष के घात-प्रतिघात प्रस्तुत करना इनकी अपनी विशेषता है । कौतूहल और जिज्ञासा का सन्तुलन कथाओं में अन्त तक बना रहता है । कथा जीवन के विभिन्न पहलुओंों को अपने में समेटे हुए मनोरंजन करती हुई आगे बढ़ती है । प्रेम और लौकिक जीवन की विभिन्न समस्याएं समराइच्चकहा में उठायी गयी हैं । हरिभद्र ने समस्याओं को उठाकर यों ही नहीं छोड़ दिया है, बल्कि उनके समाधान भी दिये गये हैं । संक्षेप में समराइच्चकहा के प्रत्येक भव की कथा शिल्प, वर्ण्य विषय, चरित्रस्थापत्य, संस्कृति निरूपण एवं सन्देश श्रादि दृष्टियों से बेजोड़ है ।
हरिभद्र के पात्र कलात्मक दृष्टि से कथा में किसी समस्या को लेकर उपस्थित होते हैं । वे कथा के प्रारम्भ से लेकर उसके उपसंहार तक अपने जीवन को श्रनन्त पीड़ाओं के साथ उस समस्या को ढोते चलते हैं । निदान का पुट इतना घना है कि पात्रों की स्वतन्त्र क्रियमाणता नष्टप्राय है । पात्रों का वैयक्तिक विकास कर्मजाल की सघनता और निश्चित संस्कारिता के कारण अवरुद्ध है । समस्याएं स्पष्ट रूप में सामने नाती हैं, पर उनके समाधान स्पष्ट नहीं हो पाते हैं । जीवन की भूमिकाओं का प्रारम्भ भी जहां-तहां वर्तमान हुँ । आठवें और नौवें भव की कथा में उस युग की राज्य और जीवन सम्बन्धी उलझन उपस्थित हुई हैं । कथाएं अपने विकास के सभी क्रमों का स्पर्श करती हुई चलती हैं । इतिवृत्तों का जमघट अधिक रहने पर भी कथा प्रवाह में कोई त्रुटि नहीं आने पायी है कथानकों की मोड़ रोचकता उत्पन्न करने में सहायक हैं । अवान्तर कथाएं निदान की पुष्टि के लिए ही आयी हैं । लेखक मुख्य कथा के सिद्धान्त को अवान्तर कथा के द्वारा स्पष्ट कर देना चाहता है । इनका सघन जाल रहने पर भी कथा में रसन्यूनता दोष तो हैं भी, पर रसाभाव नहीं आने पाया है । समराइच्चकहा की भाषा शैली अत्यन्त परिष्कृत है, इसके द्वारा प्राकृत कथा क्षेत्र को नयी दिशा प्राप्त हुई हैं ।
आठवीं शती में प्राकृत कथा साहित्य में दो प्रमुख स्थापत्यों का श्रीगणेश हुआ है -- धर्मकथा और प्रेमकथा । कौतूहल कवि "लीलावई" नामक प्रेमकथा लिखकर विशुद्ध प्रेमाख्यान परम्परा का आविर्भाव किया है । प्रेम की विभिन्न दशाओं का विवेचन जितनी मार्मिकता और सूक्ष्मता के साथ इस ग्रन्थ में पाया जाता है, उतनी मार्मिकता के साथ प्राकृत कथाओं की तो बात ही क्या, संस्कृत कथाओं में भी नहीं मिलता है । हिन्दी काव्य की प्रेमाख्यान परम्परा का मूलतः सम्बन्ध इस कथाकृति के साथ जोड़ा जा सकता है । धर्मकथा के क्षेत्र में समराइच्चकहा बेजोड़ हैं । इसकी मौलिक उद्भावनाएं उत्तरवर्ती कथा माहित्य के लिए आदर्श रही हैं । दण्डी, सुबन्धु और बाणभट्ट की दरबारी प्रलंकृत कथाशैली का परित्याग कर हरिभद्र ने सुसंस्कृत बुद्धिवालों के लिए परिष्कृत शैली अपनायी है । इस शैली की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है। यहां इतना ही निर्देश करना पर्याप्त होगा कि समराइच्चकहा धर्मकथा -शैली को ऐसी प्रौढ़ता प्रदान की, जिससे यह शैली उत्तरवर्ती लेखकों के लिए भी आदर्श रही ।
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