Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 435
________________ ४०२ ही इसके निर्माण में चरितार्थ होती है। इसमें कार्य-व्यापारों की सीमा स्वाभाविकता से बहुत आगे बढ़ जाती है अर्थात् दैवी संयोग और अतिमानवीय शक्तियां भी कार्यरत रहती हैं। बुद्धि चमत्कार प्रधान कथाओं में घटनाओं की सघनता उल्लेख्य है। __ चरित्र प्रधान कथाओं में कथासूत्र किसी मुख्य पात्र के चरित्र की रेखानों में अपना विकास पाते हैं। ऐसे कथानकों में जहां एक ओर संश्लिष्टात्मक शब्द मिलते हैं, वहां दूसरी ओर इनमें आरोह-अवरोह के क्रम बहुत कलात्मकता से स्पष्ट रहते हैं। चारित्रिक अन्तर्द्वन्द्व पात्रों के मानसिक ऊहा-पोह और विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्त होने वाली उनकी समस्त चरित्रगत विशेषताएं चरितार्थ करते हैं। भावप्रधान कथावस्तु म और भाव प्रधान रहते हैं। इन लघु कथाओं में कथानक की तीनों ही स्थितियां-- प्रारम्भ, मध्य और अन्त--विद्यमान रहती है। हरिभद्र की दृष्टान्त कथाओं में प्रतीकात्मक कथाएं उच्च कोटि की है। बुद्धि चमत्कार प्रधान कथाओं में कौतूहल की अनेक स्थितियां वर्तमान रहती है। कौतूहल की तीसरी या चौथी स्थिति के बाद कथा की चरम सीमा पाती है। इस भाग पर आकर कथा का समस्त कौतूहल और कथा का समस्त अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है । लघु कथाओं में पात्रों का जमघट नहीं है, जिससे कथा का धरातल सजीव और स्वाभाविक दृष्टिगोचर होता है। इन कथाओं में कथोपकथन की स्वाभाविकता और प्रभविष्णुता भी पायी जाती है । हरिभद्र की ये दृष्टान्त कथाएं कथातत्त्वों की दृष्टि से भी सफल हैं। प्राकृत कथा साहित्य के क्षेत्र में हरिभद्र ने नवीन और मौलिक उद्भावनाएं प्रस्तुत की है। यहां उनकी उपलब्धियों का संक्षेप में आकलन किया जाता है -- (१) सफल कथा की रचना कर कथा-विधा के एक नूतन प्रकार का सृजन । (२) प्रचलित लोक कथाओं को अपने सांचे में ढालकर श्रेष्ठ धर्मकथा का प्रणयन । (३) एक ही धरातल पर देव और मनुष्य दोनों श्रेणी के पात्रों को प्रस्तुत कर कथा में कथारस का प्राचुर्य । (४) प्ररोचन शिल्प के प्रयोग द्वारा गद्य के साथ पद्यों की भी बहुलता तथा वर्णन को अग्रसर करने के लिए दोनों का समान रूप से प्रयोग । (५) कथानक के विकास में चमत्कारिक घटनाओं और अप्रत्याशित कार्य-च्यापारों का जमघट । (६) अवान्तर मौलिकता या मध्य मौलिकता का समावेश । हरिभद्र प्राय कथा का मूल मध्य में रख देते हैं । (७) गल्पवृक्ष के मूल से लेकर स्कन्ध और शाखामों तक अन्तर्द्वन्द्वों का समावेश और शमन । (5) व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के द्वारा विशिष्ट वातावरण की सृष्टि । (६) प्रतीकों का समुचित प्रयोग और कथा-संकेतों का निर्देश।। (१०) द्वन्द्वात्मक स्थापत्य का प्रारम्भ--भाव, प्रतिभाव और समन्वय तथा इन तीनों की एकाधिक बार आवृत्ति । (११) अन्यापदेशिक शैली द्वारा घटनाओं की सूचना । (१२) स्वस्थ व्यंग्य शैली का श्रीगणेश । धूर्ताख्यान के प्रणयन द्वारा एक नयी कथा-विधा का आविष्कार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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