Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सभा आदि का वर्णन प्रस्तुत किया जाता है, वहां वाक्य कुछ लम्बे हो जाते हैं और जहां मात्र कथानक का विस्तार दिखलाया जाता है, वहां वाक्य छोटे रहते हैं। उपदेश या धर्मतत्त्व के निरूपण के समय भाषा सरल, स्वच्छ और प्रभावोत्पादक होती है। अभिप्राय यह है कि वर्णन के अनुसार परिमाजित भाषा का प्रयोग हरिभद्र की विशेषता है। अनुक्रम का अभिप्राय यह है कि भाषा में बोधगम्यता है। हृदय और मस्तिष्क में आनन्द का उद्रेक करने के लिए भाषा-शैली में विविधता का प्रयोग करना स्वर मधुरता के अन्तर्गत आता है।
एकरसता का रहना एक दोष है, पाठक एक ही शैली का प्रास्वादन करते-करते ऊब जाता है। हरिभद्र की शैली को विविधता कृति आस्वादन में रुचि उत्पन्न करने के लिए बहुत बड़ा गुण है । रचना में विचारों के अनुरूप भाषा का प्रयोग करना यथार्थता गुण कहलाता है। एकाध उदाहरण देकर हरिभद्र के उक्त गणों को स्पष्ट किया जायगा । रत्नगिरि पर्वत के रम्य निवासस्थान का वर्णन करते हुए कहा है--
पेच्छन्तो य रुइरदरिमन्दिरामलमणिभित्तिसंकन्तपडिमावलोयणपणयकुवियपसायणसुयदइयदसणाहियकुवियवियड्ढसहियणोहसियमुद्धसिद्धंगणासणाहं, कत्थइ य पयारचलियवरचमरिनियरनीहारामलचन्दमऊहनिम्मलुद्दामचमरचवलविक्खे ववीइज्जमाणं, कत्थई य नियम्बोवइयवियडघणगज्जियायण्णणुब्भन्तधुयसडाजालनहयलच्छंगनिमियकमदरियमयणाहरुजियवरावूरिउद्देस, अन्नत्थ सरसघणचन्दणवणुच्छंगविविहपरिहासकीलाणन्दियभयंगमिहुणरमणिज्जं ति । स० पृ० ६.५४८-५४६ ।
इतिवृत्त वर्णन के अवसर पर भाषाशैली सरल हो जाती है, शब्द अपना अर्थ स्वयं कहने लगते हैं। यथा--
अत्थि इहेव विजए चम्पावासं नाम नयरं । तत्थाईयसमयम्मि सुधणू नाम गाहावई होत्था, तस्स धरिणि धणसिरी नाम, ताण य सोमाभिहाणा अहं सुया आसि । संपत्तजोव्वणा य दिन्ना तन्नयरनिवासिणो नन्दसत्थवाहपुत्तस्स रद्ददेवस्स। करो य णेण विवाहो। जहाणुरूवं विसयसुहमणुहवामो त्ति । स० पृ० २१०४ ।
जहां परस्पर वार्तालाप का अवसर प्राता है, वहां छोटे-छोटे वाक्यों में भाषा सशक्त हो जाती है । सरलता और स्वच्छता के रहने पर भी वाक्यों में तीक्ष्णता वर्तमान है । यथा--
एयं सोऊण विम्हिया असोयादी। चिन्तियं च णेहिं । अहो विवेगो कुमारस्स, अहो भावणा, अहो भवविरामो, अहो कयन्नुया। सव्वहा न ईइसो मुणिजणस्य वि परिणामो होइ, कि तु पुडं पिजंपमाणो दूमेइ एस अम्हे त्ति । चिन्तिऊण जंपियं असोएण। कुमार,
मयं, कितु सब्वमेव लोयमग्गाईयं जंपियं कुमारण। ता अलमिमीए अइपरमत्थचिन्ताए। न प्रणासेविए लोयमग्गे इमीए वि अहिगारो त्ति। स० पृ० ६८७३ ।
हरिभद्र की शैली में सरल और मिश्र दोनों प्रकार के वाक्य मिलते हैं। सरल वाक्यों में समास का अभाव है अथवा अल्पसमासवाले पद है। मिश्रित वाक्यों में लम्ब समास भी हैं। वैभव के वर्णन के समय वाक्य सामान्यतः लम्बे और पदार्थों का सजीव रूप उपस्थित करने वाले होते है। हरिभद्र दृश्यों को ब्योरेवार उपस्थित करते हैं। ब्योरों को मूर्तरूप देने और उनका सांगोपांग चित्र खड़ा कर देने में सिद्धहस्त हैं। श्रीकान्ता देवी ने स्वप्न में सिंह का दर्शन किया। कवि ने इस सिंह का भव्य रूप उपस्थित करते हुए लिखा है। सिंह की प्राकृति का पूरा चित्र सामने आ जाता है। इन पंक्तियों के प्राधार पर सुन्दर रेखाचित्र बनाया जा सकता है।
एवम
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