Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 367
________________ मणि की किरणों से मिश्रित होने के कारण श्वेत चामर हरित हो रहे थे तथा श्वेतं चामरों में संलग्न चामीकर दण्ड के संयोग से पीतप्रभा निकल रही थी। उक्त वर्णन रंग परिज्ञान को सूक्ष्मता का परिचायक है। कमल के पराग (कमलरयपिंजर ४२८), जटा, दीपक देहप्रभा आदि का भी पीतवर्ण निरूपित है। कृष्णवर्ण का प्रयोग मेघ, शैल, समुद्र पंक, केश, मिथ्यात्व और अन्धकार के निरूपण में किया है। पांडुवर्ण का उल्लेख चन्दणपाण्डुरं (६४०) और कामिणी गण्डपण्डस्यन्दो (३१८) में हया है। इन वर्गों के अतिरिक्त पंचवर्ण के पुष्पों (७८४, ९७४ तथा ६६७) का उल्लेख भी पाया है। इन लौकिक रंगों के अलावा दिव्यवर्ण भी आया है तथा कृष्ण, नील, लोहित, पीत और शुक्ल इन पंच वर्षों से रहित अनिर्वचनीय रंग या रंगाभाव की (पृ० ९७६) स्थिति भी चित्रित है। २। भावपक्ष-- जीवन का वह असीम और चिरन्तन सत्य, जो परिवर्तन की लहरों में अपनी क्षणिक अभिव्यक्ति करता रहता है, अपने व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही रूपों की एकता लेकर साहित्य के भावपक्ष में अभिव्यक्त होता है। तथ्य यह है कि कवि की संस्कारजन्य प्रतिभा जीवन के विविध वातावरणों के मार्मिक चित्रों को प्रात्मसात् करती रहती है। मनोवेगों के किसी विशेष उद्रेक द्वारा ये एकत्रित चित्र वाग्धारा के माध्यम से साहित्य का निर्माण करते हैं। निष्कर्ष यह है कि भावपक्ष से तात्पर्य साहित्य के अन्तरंग से है, इसे एक प्रकार से आत्मा कहा जा सकता है। भावपक्ष का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप रसनिष्पत्ति है । भाव रसकोटि पर पहुंचकर ही आस्वाद्य बनते हैं। फलतः साहित्य के अन्तर में भाव की प्रतिष्ठा है। रसनिष्पत्ति भी प्रधानतः भावना के परिपोषण और उसके आस्वादन पर अवलम्बित हैं। ___ भावपक्ष में एक अन्य तत्त्व कल्पना भी है । कल्पना का लक्ष्य है अपूर्व की स्थापना। रूपक और प्रतीक ये दो कल्पना के प्रमुख उपकरण है। इनकी योजना से वस्तु-सत्य प्रभावशील और मनोरम बनता है। जीवन की घटनाओं और अनुभूतियों का पृथक्करण और उनकी विशिष्ट मूत्ति के हेतु उनका स्वतन्त्र रूप से संयोग कल्पना का काम है । कुशल कलाकार भाव-पक्ष में भाव और कल्पना इन दोनों का समुचित प्रयोग करता है। सौन्दर्य बोध से भावनाएं उद्दीप्त होती है और बुद्धि व्यापार द्वारा इन भावनाओं में व्यवस्था, क्रम और मर्यादा स्थापित होती है । हरिभद्र के भावपक्ष के अन्तर्गत निम्न बातें विचारणीय है :-- (१) रसानुभूति और रसपरिपाक । (२) व्याय की स्थिति । (३) समाजशास्त्रीय तथ्य । १। रसानुभूति और रसपरिपाक--रस की निष्पत्ति भावों के विविध स्वरूपों के सम्मिश्रण से होती है । कवि ने रसपरिपाक द्वारा पाठकों को रसानुभूति उत्पन्न कराने में सफलता प्राप्त की है । समराइच्चकहा धर्मकथा ग्रन्थ है । अतः इसमें मुख्य रस शान्त रस ही है, पर गौणरूप से शृंगार, वीर, रौद्र और भयानक रस का भी निरूपण हुआ है। प्राचार्य हरिभद्र ने संसार से अत्यन्त निर्वेद दिखला कर अथवा तत्त्वज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष प्रकट कर शान्त रस की प्रतीति करायी है। यहां आलम्बन रूप में संसार की असारता का बोध या आत्मतव की प्रतीति चित्रित है। समरादित्य अपने नौ भवों में संसार की विषमताओं, स्वार्थों और उसकी सारहीनता का अनुभव कर विरक्ति धारण करता है। उद्दीपन रूप में उसका किसी प्राचार्य के संपर्क में पहुँचना, उनका धर्मोपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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