Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 368
________________ ३३५. सुनना तथा सांसारिक झंझटों का आना प्रभृति हैं । संसार को क्षणभंगरता, कर्म के विविध फल, त्याग की तत्परता आदि अनुभाव हैं । निर्वेद या शम स्थायी भाव के रूप में विद्यमान हैं । धृति, मति, हर्ष, उद्वेग, ग्लानि, दैन्य, प्रसूया, निर्वेद, स्तब्ध प्रभृति संचारी भाव विद्यमान हैं । अतः समस्त ग्रन्थ में आद्योपान्त शान्त रस का साम्राज्य है । हरिभद्र जैसे कुशल कलाकार प्रान्त शान्त रस के व्याप्त रहने पर भी शृंगार की योजना में किसी सत्कवि से पीछे नहीं हैं । समराइच्चकहा में शृंगार रस के दोनों पक्षों का सुन्दर चित्रण हुआ है । सिंहकुमार और कुसुमावली के प्रथम साक्षात्कार के अनन्तर वियोग की अवस्था में जो नाना भाव तरंगें उठती हैं, उनका अत्यन्त मार्मिक चित्रण है । सहजता और स्वाभाविकता से उमड़ते-घुमड़ते हुए भावों को पूर्ण मामिकता तथा प्रभविष्णुता के साथ संक्षेप में अभिव्यक्त कर देने की कला में कवि पूर्ण निष्णात है । afai विलासवती की विरहावस्था का चित्रण करते हुए बताया है निमिया सहियाहि उच्छंगसयणिज्जे, वीजिया मए बाहसलिलसित्तेण तालियण्टण, दिन्नं च से सहावसीयलवच्छत्थलंमि चन्दणं, उवणीओ मुणालियावलयहारो, लद्धा कहवि तीए चेयणा, उम्मिल्लियं अलद्धनिद्दाक्ख यपाडलं लोयणजयं । उपर्युक्त गद्यखंड में वियोग की सभी अवस्थाओं का चित्रण हुआ है । अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि और जड़ता का सुन्दर चित्रण है । विलासवती के हृदय में सनत्कुमार को प्रथम साक्षात्कार के अनन्तर ही प्रेम अंकुरित हो जाता है । वह उसकी प्राप्ति की अभिलाषा करती हैं, उसके गुणों का स्मरण तथा उसके रूप का चिन्तन करती है । मदनलेखा सखि से वह कुमार के गुणों प्राप्ति के लिये उसके मन में उद्वेग बढ़ता है, वह दुर्बल और विषाद, उत्कंठा, कृशता और व्याधि आदि संचारी भाव भी विद्य बढ़ने पर प्रलाप और मूर्छा की स्थिति आती है, सखियां सन्तापउपचार करती हैं । उसकी भी दैनिक क्रियायें बन्द हो जाती का कथन करती हैं । विवर्ण हो जाती हैं। मान हैं। उद्वेग के शान्ति के लिये नाना हैं । विलासवती की वियोगावस्था के चित्रण से स्पष्ट है कि प्राचार्य हरिभद्र ने वियोग श्रृंगार का यह चित्रण अलंकार शास्त्र की पद्धति पर किया है । कुसुमावली की वियोगजन्य दशा भी इसी प्रकार की वर्णित हैं । इस वियोग का आलंबन तो नायक ही है, किन्तु उद्दीपन के रूप में वसन्त का बड़ा हृदयग्राह्य चित्रण किया है । पूर्वराग का बहुत ही मर्मस्पर्शी वर्णन कर कवि न रतिभाव को पुष्ट किया है । हरिभद्र ने प्रत्यक्ष दर्शन के अतिरिक्त चित्रदर्शन और गुणश्रवण का भी सुन्दर निरूपण किया । रत्नवती का चित्र लेकर चित्र और सम्भूति अयोध्या आते हैं और कुमार गुणचन्द्र को रत्नवती का चित्र दिखला कर अनुरक्त करते हैं । रत्नवती के हृदय मैं भी कुमार के चित्रदर्शन से ही अनुराग उत्पन्न होता है । कवि ने रत्नवती की वियोगावस्था का सरस चित्रण किया है । समद्धासिया अरईए, गहिया रणरणएणं, अंगीकया सुन्नयाए, पडिवन्ना वियारे हि, श्रोत्थया मयणजरएण 1 तो सा "सीसं मं दुक्खई" त्ति साहिऊण सहियणस्स उवगया सर्याणिज्जं । तत्थ उण पवडढमाणाए वियम्भियाए श्रणवरयमुव्वतमाणे णमंगणं श्रापण्डुरएहि गण्डपासएहि वप्फपज्जाउलाए दिट्ठीए श्रद्धासासवीसम्भं जाव थेववेलं चिट्ठइ - 1 १ स०, पृ० २ -- वही, पृ० Jain Education International ३७५ । ७६३-६४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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