Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(४) लाक्षारक्त (जावयरसेण, पृ० ६४ तथा चलणालतयरसरंजिय, पृ० ५४८)।
(५) पाटलारक्त (पाडलकुसुमसन्निहेण अहरेण, पृ० ४०६)। उपर्युक्त रक्तवर्ण के तारतम्य के अतिरिक्त सामान्य रक्तवर्ण का प्रयोग भी हुआ है। चमर श्वेत होने पर शुभ माने जाते हैं, पर कवि जब इनकी अशुभता का निर्देश करना चाहता है तब रक्त चामर (पृ० २६५) का प्रयोग कर मर्मस्पर्शी तथ्य को अभिव्यंजना कर देता है। कोपानल की भीषणता दिखलाने के लिए नेत्रों का रक्तवर्ण (पृ० १६०) निरूपित किया गया है। सत्य यह है कि कवि की दृष्टि में रक्त नेत्र बीभत्सता और भीषणता का कारण है, अतः वह उक्त बिम्ब की उपस्थिति के लिए रक्तनेत्र का प्रयोग करता है। एक स्थल पर अजगर के खूखार और हिंसक रूप की अभिव्यंजना करने के लिए “रत्तबीभच्छएणं" (पृ० १४८) का प्रयोग कर कवि ने अपने रंगविचार की सूक्ष्मता प्रदर्शित की है।
लाल रंग के निरूपण में कवि की एक विशेषता और दृष्टिगोचर होती है। जहां उसे सौभाग्य , प्रेम और परस्परानुराग का चित्रण करना होता है, वहां वह कुंकुम को अवश्य उपस्थित करता है। ऐसा एक भी विवाहोत्सव न मिलेगा, जिसमें कवि ने कुंकुम का प्रयोग किसी न किसी रूप में न किया हो। नववर की सुषमा की अभिव्यंजना प्रर्शित करते समय कुंकुमयंगराया (९००) जैसे वर्णन प्रस्तुत किये गये हैं। स्पष्ट है कि वर और दुलहिन की सजावट कुंकुम के बिना अधूरी मानी गयी है।
समराइच्चकहा में नीलवर्ण का निरूपण वस्तु सुषमा के अतिरिक्त भावों की सघनता का विश्लेषण करने के लिए किया गया है। प्रधानतः नीले रंग के दो रूप उपलब्ध है--हल्का नीला और गहरा नीला। हरिभद्र ने हल्के नीले रंग का वर्णन करते हए बताया है--होरिन्दनीलमरगयमऊहपरिरंजियजलोहं (१०२४८) अर्थात नीलमरकत मणि को हल्के नीले रंग की किरणें जलसमूह को अपने वर्ण से नीला बना रही थीं। हल्का नीला रंग नीलम के वर्ण का होता है, अतः हरिभद्र ने इस रंग का उल्लेख नीलमणि के उपमान द्वारा प्रायः किया है। गहरे नीले रंग का निरूपण करते हुए हरिभद्र ने “तमालदलनीलं" (२६३) में तलवार या तमालपत्र के समान नीलवर्ण का स्वरूप अंकित किया है। __ पीतरंग का निरूपण कलवौत, चामीकर और कमल पराग विशेषणों द्वारा किया गया है। तरुणरविमण्डलनिहं, सुविसु द्धिजच्चकंचणं (पृ० १६६) द्वारा भी मध्याह्न कालीन धूप और अग्निसंतप्त कांचन के समान पीतवर्ण का निरूपण हुआ है। कवि का रंग संबंधी निरीक्षण कितना सूक्ष्म है, इसका अनुमान निम्न पद्यों के अवलोकन से किया जा सकता है ।
विप्फुरियजच्चकंचकिकिणिकिरणानुरज्जियपडायं। रययमयगिरिवरं पिव पंजलियमहोसहिसणाहं॥ प्रोऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसियचमरं।
सियचमरदण्डचामीयरप्पहापिंजरद्दायं ॥स० पृ० ६०८ ॥ तप्त कांचन वर्ण की किकिणियों की किरणों से अनुरंजित पताका कैलाश पवत के ऊपर चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रही थी। इस प्रसंग में तप्तकांचन की किरणों का श्वेतवर्ण की पताका के ऊपर पड़ना कैलाश पर्वत पर चट्टान का निवास करना है। रंगों की विशिष्ट जानकारी के अभाव में प्रस्तुत अप्रस्तुत की यह योजना संभव नहीं थी।
स्फटिक की निर्मल भित्ति में कांचनस्तम्भ की आभा संक्रान्त हो रही थी तथा स्तम्भों पर लटकते हुए वस्त्रों में मुक्ताएं जटित थीं। इस अवचूल में जटित मरकत
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