Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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चतुर्थ आख्यान में--
(१) रावण और कुम्भकर्ण सम्बन्धी मिथ्या मान्यताएं । (२) अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्रपान की कल्पना । (३) कद्रू और विनता के उपाख्यान ।
(४) समुद्र पर पर्वतखंडों से वानरों द्वारा सेतु कल्पना । पंचम पाख्यान में--
(१) व्यास ऋषि के जन्म की मान्यता । (२) पांडवों के अप्राकृतिक जन्म की कल्पना । (३) शिव लिंग की अनन्तता सम्बन्धी कल्पना । (४) हनुमान की पूंछ की असाधारण लम्बाई सम्बन्धी मान्यता। (५) गन्धारिकावर राजा का मनुष्य शरीर छोड़कर अरण्य में कुरबक वृक्षरूप
हो जाने की असंभव कल्पना । - इस प्रकार हरिभद्र ने उपर्युक्त असंभव बातों का व्यंग्य द्वारा निराकरण किया
व्यंग्य साहित्य की परम्परा प्राचीन काल से ही उपलब्ध है। भारतीय मनीषा सामाजिक असंगतियों और अस्वास्थ्यकर बातों के प्रति व्यंग्यात्मक संकेत करने में सदा सजग रही है। व्यंग्यात्मक कृतियों में धार्मिक वातावरण का अभाव रहने से अधिकांश प्राचीन व्यंग्य कृतियां समय के गर्भ में समाहित हो गयी है।
दशकुमारचरित संस्कृत का विशिष्ट कथाग्रन्थ है। स्थापत्य और घटनाओं की नूतनता के कारण यह परम्परा का अनुकरण नहीं करता है। समाज का जीवन्त और यथार्थ चित्रण इस कृति में किया गया है। कवि दंडी ने व्यंग्य-शैली का प्रयोग कर समाज को स्वस्थ बनाने की चेष्टा की है। इसी ग्रन्थ के समान मच्छकटिक नाटक भी सामाजिक बुराइयों और कुत्सित परम्पराओं का परिमार्जन कर समाज को परिष्कृत बनाने में सहायक है । दामोदरगुप्त (ई० ७७६--८१३ ई०) ने कुट्टिनीमत और क्षेमेन्द्र ने (११वीं ई० शती) समय मातृक लिखकर व्यंग्यशैली को प्रौढ़ता प्रदान की है। कुल, धन, विद्या, रूप, शौर्य और दान आदि पर आधारित कथाओं द्वारा सामाजिक अहं पर व्यंग्य किया है। क्षेमेन्द्र की दृष्टि बडी पैनी है। इनका कशाघात भी पुष्पमाला के समान प्रतीत होता है ।।
नाटकों में भाण और प्रहसन में तो व्यंग्य तत्त्व सन्निविष्ट रहते हैं। धूख्यिान का व्यंग्य अाक्रमणात्मक नहीं है और न इसमें कशाघात ही पाया जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र ने पौराणिक मान्यताओं का निराकरण करने के लिये व्यंग्य की सुन्दर योजना की है। इनका व्यंग्य अानन्द और उल्लास की सृष्टि के साथ पुराणों के अतिवाद का अवरोध करता है ।
समाजशास्त्रीय तत्त्व
हरिभद्र के साहित्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि सच्चरित्र व्यक्तियों के बिना समाज का उत्तम गठन नहीं हो सकता है । उत्कृष्ट समाज रचना के लिये हरिभद्र के अनुसार नैतिक और चरित्रनिष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता है। यह सत्य है कि श्रेष्ठ समाज रचना के लिये अच्छे राज्य नियम बनाने या व्यक्तियों के अधिकारों की
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