Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 424
________________ जीवन की सारी अनैतिकताएं दूर हो जाती हैं और जीवन सुखी बन जाता है। इस लोकधर्म में किसी धर्म या सम्प्रदाय का गन्ध नहीं है। इन्होंने पूर्वकृत कर्मों की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-- सम्वो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहे सु गुणे सु य निमित्तमत्तं परो होइ '॥ अर्थात् सभी व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों के फल के उदय को प्राप्त करते हैं। अपराध करने वाला या कार्य सिद्धि में गुणों को प्रकट करने वाला व्यक्ति तो केवल निमित्त मात्र होता है। हरिभद्र ने अपने समय की धार्मिक स्थिति का वर्णन करते हुए तापस धर्म और तापस आश्रमों का विवेचन किया है। प्रथम भव की कथा में सुपरितोष नामक आश्रम का चित्रांकन करते हुए बताया है कि यह आश्रम बकुल, चम्पा, अशोक, पुन्नाग और नाग वृक्ष विशेषों से युक्त था। यहां हरिण और सिंह एक साथ शान्तिपूर्वक रहते थे, सुगन्धित धूप मिश्रित धूम निकलता था एवं निर्मल जलवाली गिरि-नदी प्रवाहित होती थी। इस आश्रम का कुलपति आर्जव कौण्डिन्य था, जो बल्कलधारी, बिकट जटा-लम्बी, मोटी जटावाला, अजित और त्रिदण्डधारी, राख का त्रिपुण्ड लगाये, कमण्डलू पास में रखे, कुशासन पर ध्यानस्थ बैठा हुआ रुद्राक्ष की माला घुमा रहा था। मन्त्राक्षर जपने से उसके कुछ ओठ फडक रहे थे। उसने नासाग्र दष्टि रखकर अपने समस्त बार व्यापार को रोक लिया था। यह अतसीमय योगपट्ट नाम के आसन को लगाये थे। पंचम भव की कथा में एक तापसी का वर्णन करते हुए हरिभद्र ने लिखा है : "राख का पुंडरीक लगाये, जटाओं को ऊपर बांधे हुए, दाहिने हाथ में पुत्रंजीवक के बीजों की माला और बायें हाथ में कमण्डलू लिये हुए, बल्कलधारिणी, अत्यधिक तपस्विनी, अस्थिचर्मावशेष, प्रौढ़ अवस्था की तापसी सनत्कुमार ने देखी ।" उपर्युक्त वर्णनों से तापसी मत के संबंध में निम्न निष्कर्ष निकलते हैं:(१) कायक्लेश को ही जीवन का चरम लक्ष्य माना। (२) अहिंसा हिंसा के विवेक से शून्य और हिंसक तप--पंचाग्नि आदि में विश्वास। (३) आध्यात्मिक चिन्तन से दूर, मात्र लौकिक सिद्धियों में ही विश्वास । (४) अज्ञानतापूर्वक कृच्छू साधना । (५) परिग्रह में आसक्ति रखना। (६) यज्ञ को निर्वाण प्राप्ति का मार्ग समझना। इसमें संदेह नहीं कि हरिभद्र के समय में तापस मत का पर्याप्त प्रचार था। हरिभद्र ने लघु कथाओं में बौद्ध धर्म का भी निर्देश किया है। आत्मा के अस्तित्व के संबंध में पिंगक और आचार्य विजयसिंह का वाद-विवाद उपस्थित कर हरिभद्र ने नास्तिकता का खंडन कराया है। लौकायत या चार्वाक मानता है कि पंचभूत के विशिष्ट रासायनिक मिश्रण से शरीर की उत्पत्ति की तरह आत्मा की १--सम० पृ० १६० । २--स० पृ० ११-१२ । ३- वही, पृ० ४११ । ४--तच्चणियड़वासएण, द० हा० पृ० ९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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