Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(७७) युद्ध--रणभूमि में युद्ध करने की कला । (७८) नियुद्ध--कुश्ती लड़ने की कला । (७९) युद्ध-नियुद्ध--घमासान युद्ध करने की कला । (८०) सूत्रक्रीडा--सूत की जानकारी। किस प्रकार की कपास से कैसा सूत
तैयार होता है और सूत का उपयोग किस प्रकार किया जाता है, आदि
बातों का परिज्ञान अथवा सूत्र द्वारा विविध खेल करने की कला। (८१) वत्थखेड्ड---वस्त्र क्रीडा--सूती, ऊनी, रेशमी और तसर वस्त्रों को कलात्मक
जानकारी अथवा वस्त्र द्वारा नाना प्रकार की क्रीड़ा करने की कला । (८२) वाह यक्रीड़ा--वाह याली में घुड़सवारी करने की कला । (८३) नालिककोड़ा--एक प्रकार की चूत क्रीड़ा। (८४) पत्रच्छेद-पत्तों को भेदने की कला, निशानेबाजी। (८५) कटकछेद--सेना को बेधने की कला। (८६) प्रतरच्छेद--वृत्ताकार वस्तु को भेदने की कला। (८७) सजीव--मृत या मृततुल्य व्यक्ति को जीवित कर देने की कला । (८८) निर्जीव--मारणकला, युद्ध आदि के बिना ही मन्त्र इत्यादि के द्वारा मारने
की कला। (८९) शकुनरुत--पक्षियों को आवाज द्वारा शुभाशुभ का परिज्ञान ।
इस प्रकार समराइच्चकहा में ८९ कलाओं का उल्लेख मिलता है। विपाकश्रुतम्' में “बाबत्तरीकला पंडियो" कहा है अर्थात् ७२ कलाएं कही गई हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में ६४ कलाओं का नामोल्लेख आया है। कामशास्त्र में भी ६४ कलाओं का कथन किया गया है। अतः तलनात्मक दष्टि से विवचन करन पर ज्ञात होता है कि हरिभद्र ने एक कला के कई अंश कर दिये है। कुछ ऐसे भी नाम है, जो बहत्तर और चौसठ नामों में अन्तर्भक्त नहीं होते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में बताये गये नामों में हरिभद्र के कला नामों की अपेक्षा कुम्भ भ्रम, सारिश्रम, अंजनयोग, चूर्णयोग, हस्तलाघव, वचन-पाटव आदि कुछ कलाओं के नये नाम हैं। ७२ कलाओं की संख्या के साथ तुलना करने पर अवगत होता है कि हरिभद्र द्वारा उल्लिखित समताल और स्वरगत कलाओं का अन्तर्भाव ताल कला में हो जाता है ।।
हरिभद्र की आर्या, प्रहेलिका, गाथा, गीति और श्लोक इन पांचों कलाओं का काव्य कला में अन्तर्भाव होता है। गज और अश्व लक्षण कला में गज और हय लक्षण कला के अतिरिक्त गो, कुक्कुट और मेष लक्षण कला की अन्तर्भुक्ति भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त अश्वशिक्षा और हस्तिशिक्षा ये दो कलाएं भी इनके अन्तर्गत आ सकती है। होरा, चन्द्रचरित, सूर्यचरित, राहुचरित और ग्रहचरित कलाओं का अन्तर्भाव ज्योतिष कलाओं में और चार, प्रतिचार व्यूह, प्रतिव्यूह, स्कन्वावारमानं, स्कन्धाकार-निवेशन का युद्धकला और गरुड-युद्धकला में अन्तर्भाव किया जा सकता है। नगरमान, वास्तुमान, नगरनिवेश और वास्तुनिवेश की नगरवसावन कला में अन्तर्भुक्ति की जा सकती है। मणिशिक्षा, हिरण्यवाद, सवर्णवाद, मणिवाद और धातवाद का धातवाद और रत्नपरीक्षा में अन्तर्भाव तथा नियुद्ध, युद्ध-नियुद्ध, अस्थियुद्ध का भी युद्धकला में अन्तर्भाव संभव है। नालिक क्रीड़ा की भी द्यूतकला में अन्तर्भुक्ति संभव है।
१-- विपाकश्रुतम् द्वितीय अध्याय, प्रथम सूत्र ।
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