Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
३६२
भी उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार महुआ, गुड़, जौ श्रादि पदार्थों के सड़ाने से शराब बनती है और उसमें मादक शक्ति स्वयं आ जाती हैं, उसी तरह पंचभूतों के विशेष संयोग से चैतन्य शक्ति भी उत्पन्न हो जाती हैं । अतः चैतन्य आत्मा का धर्म न होकर शरीर का ही धर्म हैं और इसीलिए जीवन की धारा गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त चलती है । मरणकाल में शरीर यन्त्र में विकृति आ जाने से जीवन शक्ति समाप्त हो जाती है । इस प्रकार देहात्मवाद की सिद्धि पिंगक ने की है ।
उत्तर में आचार्य विजयसिंह ने देह से भिन्न आत्मा की सत्ता "अहं सुखी" "अहं दुःखी" आदि स्वानुभवज्ञान द्वारा सिद्ध की है । जन्मान्तर स्मरण भी आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है । यह सत्य है कि कर्मपरतन्त्र आत्मा की स्थिति बहुत कुछ शरीर और शरीर के अवयवों के अधीन रहती है |
भूत चैतन्य या देहात्मवाद आधुनिक थाइराइड और पिचुवेटरी ग्रन्थियों के हरमोन सिद्धान्त के समकक्ष है । इसके अनुसार अन्य ग्रन्थियों के हरमोन नामक द्रव्य के कम हो जाने पर ज्ञानादि गुणों की कमी आती हैं । पर यह भी देह परिमाण वाले स्वतंत्र आत्मतत्त्व के मानने पर ही सिद्ध हो सकता है । इस प्रकार हरिभद्र ने देहात्मवाद की एक झलक दिखलायी है ।
हरिभद्र के समय में शाक्त या अघोरपन्थो धर्म का भी प्रचार था । इन्होंने छठे भव की कथा में पल्लीपति द्वारा कात्यायनी देवी के मन्दिर में नरबलि का आयोजन दिखलाया है । इस मन्दिर की भयंकरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि मनुष्यों के कलेवर से इसका प्राकार शोभित था, कबन्धों से इसके तोरण बनाये गये थे । सिंह का मुंह इसके शिखर पर लगा हुआ था । हाथी दांत से दीवालें बनाई गई थीं। गर्भगृह तत्क्षण कट गये चर्म से आच्छादित था । नर कपाल में पुरुष की बसा दीपक के रूप में प्रज्वलित हो रही थी । विल्व और गुग्गल के जलने से कटु धूम निकल रहा था । शबर स्त्रियों ने रुधिरासक्त गजमुक्ताओं से स्वस्तिक बनाये थे । इस मन्दिर में के दण्ड, खड्ग, घण्टा और महिषासुर की पूंछ हाथ में लिए हुए कात्यायनी की प्रतिमा विराजमान थी । अतः स्पष्ट है कि जंगली जातियों में इस धर्म का प्रचार था । हरिभद्र ने इन विभिन्न धर्म के अनुयायियों को अन्त में अहिंसक बनाया है ।
२
शिक्षा साहित्य
राजकुमार किशोरावस्था
――
हरिभद्र ने शिक्षा को जीवन का अनिवार्य अंग माना है । लेखक शिक्षा प्राप्ति के लिये सौंप दिये जाते थे । ये राजकुमार "रायकुमारोचिय कलाकलावो" राजकुमारोचित कलाओं को सीखते थे । काव्य रचना भी करते थे कुमार लिहिया गाहा (स० पृ० ७५७ ) तथा चित्र रचना " उवणीया से कुमार लिहिया चिन्तवट्टिया" (स० पृ० ७६० ) की शिक्षा भी पाते थे । नाना प्रकार के मनोहर चित्र बनाकर राजकुमार अपना मनोरंजन करते थे । कुमार अपने अभ्यास द्वारा शीघ्र ही "सयल - सत्यकला-सम्पत्तिसुन्दरं पत्तो कुमारभाव" (स० पृ० ८६३ ) समस्त शास्त्र और
१. सम० पृ० २०१-२१५ ।
२ - वही, पृ० ५३१-५३२ ।
३ -- समप्पिया य ले हायरियस्स -- स०, पृ० १२८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org