Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कारण नृत्य करने वालों के पैर के नूपुर अनुरणन करते थे । नर्तकियां अपने उत्तरीय को उठा-उठाकर नृत्य करती थीं। जन्मोत्सव का आनन्द लेने के लिए इतने लोग एकत्र होते थे, जिससे यातायात का मार्ग अवरुद्ध हो जाता था । बाजा बजाने वालों को बहुमूल्य आभूषण उछाल-उछाल कर दिये जाते थे । इस उत्सव को सम्पन्न करने के लिये अपरिमित धनराशि का व्यय किया जाता था ।
( ३ ) भाई - बहन का सम्बन्ध -- २ -- भाई-बहन का सम्बन्ध भी परिवार में एक पवित्र और मधुर सम्बन्ध था। बहन घर में कन्या या किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा नेया ( विवाह्य ) थी । असमगोत्र विवाह और पितृ सत्तात्मक परिवार में यह अनिवार्य था । हरिभद्र भाई-बहन के प्रेम का एक उत्कृष्ट चित्र प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया हैं कि धन सार्थवाह की स्त्री का नाम धन्या था । इस दम्पति के दो पुत्र थे--धन और धनवाह तथा गुणश्री नाम की एक कन्या थी । इन भाई-बहनों में अपूर्व प्रेम था । दुर्भाग्य से विवाह के अनन्तर ही गुणश्री विधवा हो गयी और वह व्रताचरण करती हुई रहने लगी। माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् वह संन्यासिनी बन जाना चाहती थी, पर भाइयों ने स्नेहवश उसे अनुमति न दी और घर में ही उसके धर्म साधन की सारी व्यवस्था कर दी । यद्यपि भौजाइयां ननद से कभी-कभी उलझ पड़ती थीं, किंतु भाइयों का अपनी बहन के प्रति अपार स्नेह था, वे उसका परामर्श भी लेते थे । परिवार की शांति और दृढ़ता के लिए भाई-बहन का स्नेह आवश्यक था ।
विवाह
विवाह एक चिरमर्यादित संस्था थी । हरिभद्र की दृष्टि से विवाह का उद्देश्य जीवन में पुरुषार्थों को सम्पन्न करना था । गृहस्थ जीवन का वास्तविक उद्देश्य दान देना, देवपूजा करना एवं मुनिधर्म को प्रश्रय देना है । साधुओं और मुनियों को दान देने की क्रिया गृहस्थ जीवन के बिना सम्पन्न नहीं हो सकती है। स्त्री के बिना पुरुष अकेला आहार असमर्थ हैं, अतः विवाह की नितान्त आवश्यकता थी । समाजशास्त्र की दृष्टि से विवाह का उद्देश्य तथा कार्य निम्न हैं-
( १ ) स्त्री-पुरुष के यौन सम्बन्ध का नियंत्रण और वैधीकरण ।
( २ ) सन्तान की उत्पत्ति, सरक्षण, पालन और शिक्षण । (३) नैतिक, धार्मिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन |
हरिभद्र ने विवाह के महत्त्वपूर्ण कार्य और उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है "कुसलेण अणुयत्तियव्वो लोयधम्मो, कायष्वा कुसलसंतती, जइयव्वं परोवपारे, अणुयत्तियथ्वो कुक्कम ।" अर्थात् कुशल बनकर लोकधर्म -- सांसारिक कार्यों का अनुसरण करना, कुशल सन्तति उत्पन्न करना, परोपकार में सलग्न रहना, कुल परम्परा का निर्वाह करना, कटुमधु अनुभवों द्वारा जीवन को विकसित करना विवाह का उद्देश्य है । विवाहित जीवन द्वारा लोक-धर्म का अभ्यास कर लेने पर, गृहस्थाश्रम के अनुभवों द्वारा परिपक्वता प्राप्त कर लेने पर, पुरुषार्थ के वृद्धिंगत हो जाने पर, वंश के प्रतिष्ठित हो जाने पर, लोक शक्ति का परिज्ञान हो जाने पर, अवस्था के उतार के समय, विकारजन्य उपद्रवों के दूर होने पर, सद्गुणों के पूर्ण प्रतिष्ठित होने पर संन्यास धर्म का ग्रहण करना उचित होता है । अतः स्पष्ट है कि हरिभद्र द्वारा भी उक्त समाजशास्त्रीय उद्देश्य मान्य हैं । जीवन विकास के लिए विवाह एक आवश्यक कर्त्तव्य है ।
१ - सम०, पृ० ६१३ --६१५।, २ - वही, प० ८९५ ।
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