Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 406
________________ ३७३ विवाह में निर्वाचन -- हरिभद्र की कथाओं से विवाह के प्रकारों पर कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता है । राजघरानों में प्रेम-विवाह सम्पन्न होते थे । वयस्का राजकुमारी वयस्क राजकुमार आपस में एक-दूसरे को देखते ही मुग्ध हो जाते थे । जब उनमें परस्पर वियोग जन्य अनुराग पूर्णतया वृद्धिगत हो जाता था, तो यह प्रेम विवाह के रूप में परिवर्तित हो जाता था । कुसुमावली और सिंहकुमार का विवाह तथा विलासवती और सनत्कुमार का विवाह प्रेमविवाह ही हैं। राजघरानों के अतिरिक्त साधारण लोगों में वर निर्वाचन के लिए निम्न चार मानदण्ड प्रचलित थे (१) वय - - रूप । (२) विभव । (३) शील । (४) धर्म । ➖➖ ar और रूप का तात्पर्य यह है कि वर और कन्या समान वय --- --आयु के हों। अनमेल विवाह का निषेध समान वय से हो जाता है। दोनों का सौन्दर्य भी समान होना चाहिए। समान रूप सौन्दर्य के अभाव में परस्पर में प्रेमाकर्षण नहीं हो सकेगा । अतः हरिभद्र ने वर-कन्या की पहली योग्यता विवाह के लिए समान वय-रूप मानी है । वर-कन्या का वैभव भी समान होना चाहिए । धन-सम्पत्ति असमान होने पर दोनों परिवारों का सम्बन्ध उचित नहीं माना जायगा । अतः यहां विवाह में वर-कन्या के स्थायी सम्बन्ध के साथ उन दोनों के परिवार का भी स्थायी सम्बन्ध एक प्रकार से हो जाता है । सम्मिलित परिवार प्रथा में इन सभी सम्बन्धों का महत्त्व रहता है और परिवार के विकास तथा स्थैर्य में ये सभी सफल सहायक होते हैं । अतः हरिभद्र ने समान वैभव को दूसरी योग्यता माना है । समान शील वर-कन्या के लिये तीसरी योग्यता है । इसका तात्पर्य खानदान या कुलीनता है । श्रेष्ठ कुलवालों का सम्बन्ध अधिक श्रेयस्कर होता है । अतः वर-वधू का कुल समान चाहिये । विवाह के चुनाव में हरिभद्र ने धर्म को भी एक योग्यता माना है । समान धर्म बालों का विवाह सम्बन्ध अधिक सुखकर होता है । यदि दम्पति विधर्मी हों तो धर्म के सम्बन्ध में उनके जीवन में कलह बनी रहती है । समान धर्म वालों में अधिक प्रगाढ़ स्नेह जाग्रत रहता है। दोनों मिलकर उस धर्म की उन्नति करते हैं । विधर्मी होने से जीवन में अधिक कलह की सम्भावना रहती है। भारतीय परम्परा के अनुसार वधू को पतिगृह में सास, ननद, जिठानी, देवरानी आदि के बीच रहना पड़ता है । फलतः विधर्मी रहने पर पद-पद पर कष्ट उठाना पड़ता है । हरिभद्र ने स्पष्ट लिखा है " संजोएमि अवच्चं असाहम्मिएणं ' सन्तान का विवाह सम्बन्ध विधर्मी के साथ नहीं करना चाहिए। शील परीक्षा नामक लघु कथा में सुभद्रा का विधर्मी से विवाह होने का कटु फल हरिभद्र ने बड़े सुन्दर ढंग से दिखलाया है । सुभद्रा जैन धर्मावलम्बी थी और उसके पति परिवार के व्यक्ति बौद्ध धर्मावलम्बी थे । धर्मद्वेष के कारण सास-ननद उसे निरन्तर वाग् वाणों से विद्ध करती रहती थीं। जब उन्होंने सुभद्रा को अपमानित और लांछित करने का ३ " Jain Education International ८६५, द्वितीय और सप्तम भव । १ - - सन०, पृ० २ - - वही, पृ० २३५ । ३ - - वही०, पृ० ६१९। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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