Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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पति वस्त्राभरण द्वारा पत्नी की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । उसकी सारी आवश्यकताओं का ध्यान रखता था । पत्नी के साथ धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करता
था ।
सन्तान की प्राप्ति होना इस दाम्पत्य जीवन का फल था । सन्तान न होने पर देवीदेवताओं की उपासना द्वारा सन्तान प्राप्त की जाती थी । धन सार्थवाह को उत्पत्ति धनदेव यज्ञ की उपासना करने पर ही हुई थी । अतः दाम्पत्य जीवन में आकर्षण उत्पन्न करने के लिए सन्तान का रहना अत्यन्त आवश्यक था । वंशवर्धन और जातीय संरक्षण उस युग के जीवन का एक अनिवार्य कर्त्तव्य था । सन्तान सुख को सांसारिक सुखों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
मात्र आज्ञा
(२) माता-पिता और सन्तान का सम्बन्ध -- सन्तान के ऊपर माता-पिता का सहज स्नेह था और विविध रूप से उनपर पूरा अधिकार था । सन्तान का कर्त्तव्य माता-पिता की आज्ञा का पालन करना था । विनयन्धर अपनी माता के आदेश से ही सनत्कुमार की हत्या नहीं करता, बल्कि राजाज्ञा की अवहेलना कर उसे सुरक्षित स्थान में पहुंचा देता है । समरादित्य जितेन्द्रिय और त्यागी है । जीवन आरम्भ होने के अनन्तर ही उसके मन में विरक्ति की भावना आ जाती है, अतः वह संसार के मोह जाल में फंसना नहीं चाहता है । पर जब माता-पिता विवाह करने का आदेश देते हैं तो वह पालन करने के लिए अपनी मामा की कन्याओं से विवाह कर लेता है । हरिभद्र के सभी पात्र माता-पिता के आज्ञाकारी हैं। पिता और माता का स्नेह सभी को प्राप्त है । इस प्रसंग में एक बात स्मरणीय है कि हरिभद्र ने आनन्द जैसे कुपुत्र और जालिनी जैसी कुमाताओं का भी जिक्र किया है। श्रानन्द अपने पिता को बन्दी बना लेता है और जालिनी अपने पुत्र को धोखा देकर तमालपुट विष मिश्रित लड्डू खिलाकर मार डालती है । यशोधर की मां सन्तान मोह के कारण ही आटे के मुर्गे का बलिदान देकर अनन्त संसार का बन्ध करती हैं । अतः इस निष्कर्ष को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि माता-पिता और सन्तान के बीच सरस सम्बन्ध था। दोनों की ओर से अपने - अपने कर्तव्य सम्पन्न किये जाते थे । पुत्र पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता था । पिता के जीवित रहने तक पुत्र सम्मिलित जायदाद का उन्मुक्त उपभोग नहीं करता था । स्वोपार्जित द्रव्य का व्यय करने में ही पुत्र को आनन्द प्राप्त होता था । धरण सार्थवाह दान करने का इच्छुक है, पर वह पैतृक सम्पत्ति का दान नहीं करना चाहता हूँ । अतः वह धनार्जन के लिए जलयात्रा करता है और सिंहल, चीन आदि द्वीपों की यात्रा कर धन एकत्र करता है ।
हरिभद्र ने सन्तानोत्पत्ति के समय माता-पिता की प्रसन्नता का उल्लेख करते हुए जन्मोत्सव (स०, पृ० ८६१ ) का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण किया है । पुत्रोत्सव के अवसर पर काल घण्टा आनन्द की सूचना देने वाला घन्टा बजवाकर समस्त कैदियों को बन्धन मुक्त कर दिया जाता था। घोषणापूर्वक लोगों को यथेच्छदान दिया जाता था । मित्र राजाओं के पास पुत्रोत्सव का समाचार भेजा जाता था ।
नाना प्रकार के मंगल-वाद्य बजाये जाते थे । प्रत्येक कार्य में हाव-भावपूर्वक युवतियों के नृत्य सम्पन्न होते थे । नर्तकियों की सुकोमल चंचल कलाइयों की चूड़ियां झंकृत होने लगती थीं । वार विलासिनियां आमोदपूर्वक कमलनाल सहित कमलों को उछाल-उछालकर नृत्य करती थीं। कर्पूर-केशर आदि के घोलों की वर्षा से आकाश भर जाता था। कस्तूरी की वर्षा से ऐसी कीचड़ हो जाती थी कि लोग फिसल- फिसलकर गिरने लगते थे। कितने ही लोग पिचकारियों से जलवर्षा करते थे । कितने ही व्यक्ति नाना प्रकार के गीत गाने और कुछ गीतों को सुन-सुनकर अट्टहास करते थे । लीलापूर्वक चलने के
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