Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 418
________________ नगर और ग्रामों की स्थिति जैन साहित्य में ग्राम, नगर, खेट, खर्वट,मडम्ब, पट्टण, द्रोण और संवाहन' का उल्लेख प्राता है। जिस बस्ती के चारों ओर बाड़ रहती है, वह ग्राम कहलाता है। जिसके चारों ओर दीवालें हों और चार दरवाजों से संयुक्त हों, वह नगर है। पांच सौ ग्रामों के व्यापार का केन्द्र मडम्ब ; रत्न प्राप्ति के स्थान को पट्टण; समुद्री बन्दरगाह को द्रोण एवं उप-समुद्रतट से वेष्टित संवाहन होता है। पत्तन के सम्बन्ध में एक मान्यता यह भी है कि जहाँ गाड़ियों द्वारा व्यापार होता हो, वह पत्तन और जहां जलमार्ग से नौकाओं द्वारा व्यापार सम्पन्न होता हो, वह पट्टण' हैं। हरिभद्र ने बताया है कि नगर बहुत सुन्दर होता था। उसके चारों ओर प्राकार रहता था। परिखा भी नगर के चारों ओर रहती थी। नगर में प्रधान चार द्वार रहते थे, जिनमें कपाट लगे रहते थे। यातायात के लिए नगर में सड़क होती थीं। त्रिक' चतुष्क और चत्वर नगर के मार्गों की संज्ञाएं आयी हैं। जहां तीन सड़कें मिलती हों, उसे त्रिक, जहां चार सड़कें मिलती हों, उसे चतुष्क और जहां चार से भी अधिक रास्ते हों, उसे चत्वर कहते थे। जहां बहुत से मनुष्यों का यातायात हो, वह महापथ और सामान्य मार्ग को पथ कहा जाता था। हरिभद्र ने उत्सवों के अवसरों पर नगर को सजाने और उसके मार्गों में सुगन्धित पुष्प या सुगन्धित चुर्ण विकीर्ण करने का उल्लेख किया है। नगर के बाजारों को सीधी एक रेखा में बनाया जाता था। नगर में तालाब (दहा०पृ० १०६) बनाने की भी प्रथा थी। साधारण लोगों के आवास गृह कई प्रकार के बनते थे। हरिभद्र के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि राजाओं के प्रासादों को छोड़ सामान्य जनता के गृह निम्न प्रकार के होते थे:-- (१) भवन। (२) गृह। (३) चेलगृह। (४) निवास। भवन --धनीमानी व्यक्तियों के होते थे। इनमें गवाक्ष, द्वार, अट्टालिकाएं स्तम्भ, अजिर आदि रहते थे। भवनों में तोरण रहते थे तथा राजप्रासाद के समान मुख्य द्वार या सिंहद्वार भी रहता था। प्राचीन भवन आज के बंगला या कोठी का पुरातन संस्करण गृह--गृह भवन से निम्न स्तर का होता था। गवाक्ष और द्वार तो रहते थे, पर अट्टालिकाएं नहीं रहती थीं। गृह आजकल के क्वार्टर का पुरातन संस्करण थे। १..-द० हा० पृ० ११८ । --सम० के प्रत्येक भव में। ३--स० पृ० २७। ४--वही, पृ० ९ तथा ३२६ । ५--वही, पृ० ९ तथा ३२६ । ६--वही, पृ० ९ तथा ३२६ । ७.-वही, पृ० १६, ५६२। २५-२२ एड. Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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