Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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रूप का प्रदर्शन किया है। कवि को दष्टि में मात्र उन्नत कहना प्राकार के महत्त्व को बतलाने के लिए पर्याप्त नहीं था, अतः धवलविशेषण का प्रयोगकर अपने वर्णज्ञान क वैशिष्ट्य को सूचित किया है।
शरत्कालीन मेघों का भव्यरूप चित्रित करते हए हरिभद्र ने "धवला घणापुणोपीयसरसदुद्धोयहि जलब्ब" (स०प० २३६) अर्थात लवणोदधि के जल का त्यागकर दुग्धोदधि का पान कर शरत्कालीन मेघ धवल हो गये थे। यहां मेघों की धवलता का निरूपण सकारण है। कवि ने पाठक की दृष्टिसंवेदना को उदबद्ध करने के लिए प्रकाश रेखा का भव्यरूप शरत्कालीन धवल मेघघटा द्वारा उपस्थित किया है। लवणोदधि के जल का त्याग-विकार त्याग या अशुभ लेश्या के त्याग की ओर संकेत करता है और दुग्धोदधि का पान शुभलेश्या की प्रवृत्ति दिखलाता है। अतः धवलमेघ अपनी दो विशेषताओं को प्रकट कर रहा है। यह सत्य है कि विकार के त्याग और स्वभाव के ग्रहण से ही धवलता की उत्पत्ति होती है। शरत्कालीन मेघ की धवलता में प्राचार्य हरिभद्र ने सत्वगुण का उत्कर्ष दिखलाया है। इसी प्रकार जहां ध्वजा के वर्णन करते समय उसे धवल कहा है, वहां कवि ने सामान्य श्वत गुण से विशिष्ट बतलाने के लिए उसका भव्य और उदात्त रूप प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए निम्न दो प्रयोगों को ग्रहण किया जाता है।
धवलध्वजा का वर्णन करते हुए लिखा है--"धुव्वन्तधवलधयवडचलिरबलाप्रोलिजणियसंकाई" (स०प० ७०२) अर्थात् पवन से चलायमान धवल ध्वजपट बलाकापंक्ति की शंका उत्पन्न करता था। दूसरे प्रसंग में आया है--"सरघणजालन्तरिया धवलधयारायहंस व्व' (स० पृ० ७०५) अर्थात् रथों की टूटी हुई धवलध्वजा वाणों के समूह से आच्छादित हो जाने पर राजहंस के समान प्रतीत होती थी। उपर्युक्त दोनों स्थलों की धवलध्वजा का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि बलाकापंक्ति और हंस के समान यह धवल ही नहीं है, बल्कि अपनी धवलता के साथ उसमें विशालता और भव्यता भी है। जब ध्वजा अक्षण्ण रूप में फहरा रही है, उस समय बलाकापंक्ति और जब टूटकर वाणों से आच्छादित है, उस समय हंस के समान प्रतीत होती है। कवि का यह धवलरंग नियोजन बहुत ही सतर्क और अनुभूतिपूर्ण है। उपर्युक्त दोनों दृश्य अपनी सूक्ष्मता का प्रभाव पाठक के अन्तस् पर अवश्य डालते हैं। सहज में ही सत्वगुण का उद्रेक होता है और पाठक अपनी विकारी प्रवृत्ति का नियंत्रण कर स्वाभाविक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर होता है। धवलध्वज को राजहंस (स० पू० ४६७) कहा जाना इस बात का द्योतक है कि क्रोधादि विकार तथा राग-द्वषमय प्रवृत्ति जो कि कापोत, नील और कृष्ण वर्ण का प्रतीक है, के दूर हो जाने पर धवल...-शुक्ल लेश्यामयी प्रवृत्ति होती है। अतः हरिभद्र ने जहां धवलरंग का उल्लेख किया है, वहां वे शुभलेश्या की प्रवृत्ति को जाग्रत करने का प्रायास करते हैं अथवा सत्वगुण का आविर्भाव उत्पन्न कर स्वानुभव को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।
श्वेत या सित शब्द का प्रयोग चामर, वस्त्र, मुक्ताहार, पुष्पहार और चन्दनलेप के पूर्व मिलता है। हरिभद्र के वर्णन प्रसंगों से स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में धवल से हीन कोटि का श्वेत है। जो भव्यता, पवित्रता और गौरव धवल में है, वह श्वत में नहीं। श्वेत उदात्त वातावरण तो अवश्य उपस्थित करता है, पर शुक्ललेश्या या सत्वगुण का उत्कर्ष उत्पन्न करने की क्षमता उसमें नहीं है। इसी कारण सित शाब सामान्य वेष-भूषा के वर्णन के अवसर पर ही अधिक मिलता है। निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैं:
सियवरवसणनिवसणो, सियमुत्ताहारभूसियसरीरो। सियकुसुमसेहरो सियसुयन्धहरियन्दणविलित्तो॥ स० पू० ६६८ ।
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