Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 351
________________ ३१८ सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रिरूपी बधू अपने पति के वर्धित अनुराग के कारण ही शोक के समान अन्धकार से ग्रहीत प्रतीत हो रही है । इस पद्य से आगे वाले सभी पद्यों में पृ० ६६६-- ७७१ तक उत्प्रेक्षा की छटा है सन्ध्याकाल के वर्णन में कवि ने विभिन्न प्रकार की उत्प्रेक्षात्रों का प्रयोग किया है । ६——इलेष । जहां पर ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जिनसे एक से अधिक अर्थ निकलते हों, वहां श्लेष अलंकार होता है । श्लेष का चमत्कार अर्थ के समझने और मनन पर निर्भर करता है । हरिभद्र ने समराइच्चकहा दो-चार स्थलों पर ही इस अलंकार का व्यवहार किया है । (१) श्रवहत्थियमित्ते दुज्जणे व पत्ते पप्रोससमयंमि 1. चक्का भएण विहडियाइ अन्नोन्ननिरवेक्खं ।। स० पृ० ७६८ । यहां मित्र और प्रदोष शब्द में श्लेष है । मित्र का अर्थ मित्र और सूर्य दोनों हैं तथा प्रदोष का अर्थ रात्रि एवं प्रकृष्ट दोष है । पद्य के उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा भी है । अतः समस्त पद्य में संसृष्टि श्रलंकार माना जायगा । (२) सुमणाणन्दियविबुहो बहुसउणनिसेविनो अमयसारो । चत्तभव खीरसायरनिलयरई तियसविडवो व्व ॥ स० पृ० ७७६ । यह पद्य आचार्य और कल्पवृक्ष दोनों पक्षों में घटित होता है । प्राचार्य पक्ष में सुमनसा -- प्रशस्तमनसा श्रानन्दिता विबुधाः पण्डिता येन, बहुभिर्गुणवद्भिः त्यक्ता भवक्षीरसागरस्य निलये रतियँन, श्रमृतं मोक्षस्तदेव सारो यस्य । कल्पवृक्ष पक्ष में-सुमनसा पुष्पेण श्रानन्दिता विबुधा देवा येन बहवः शकुना : पक्षिण स्तंनि त्रितः, अमृतो रसस्ते न सारः, भव इव क्षीरसागरः । अर्थात् यहां सुमनस-श्रेष्ठ मन के द्वारा जिसने विद्वानों को श्रानन्दित किया है और जो अनेक गुणवान पुरुषों के द्वारा सेवित, संसाररूपी क्षीरसमुद्र के निवास का त्यागी तथा मोक्ष रूप सार को प्राप्त करने वाला विजयधर्म नाम का आचार्य कल्पवृक्ष के समान देखा । कल्पवृक्ष सुमनस -- पुष्पों के द्वारा विबुध-देवताओं को आनन्दित कवाला, अनेक पक्षियों से सेवित, अमृत के सार को देनेवाला तथा सरस एवं विस्तीर्ण होने से क्षीरसागर के संसार के निवास में रति का त्यागी होता है । ७ -- परिसंख्या | परिसंख्या अलंकार का प्रयोग गद्य साहित्य में प्रचुरता से होता है । हरिभद्र ने भी इस अलंकार का व्यवहार पर्याप्त मात्रा में किया है। किसी भी देश, नगर और ग्राम का वर्णन करते समय यह अलंकार श्रा गया है । इसमें किसी वस्तु का अपने वास्तविक स्थान या सभी स्थान से लोपकर कहीं एक विशिष्ट स्थान पर श्रारोप किया जाता है । कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं: --- (१) जत्थ य नराण वसणं विज्जासु, जसम्मि निम्मले लोहो । पावसु सया भीरुत्तणं च धम्मम्मि धणबुद्धी स०पू० ६ पढमो भवो । (२) जत्थ य परदारपरिभोयम्मि किलीवो, परच्छिद्दावलोयणम्मि अन्धो, पराववायभासणम्म मूत्र, परदव्वावहरणम्मि संकुचियहत्थो -- स० पृ० ७५ । (३) सो य परम्मुहो परकलत्ते न प्रभत्थणाए, श्रलुद्धो परविभवे न धम्मोवज्जणे, संतुट्ठो परोवयारे न धणागमे, श्रहिगवो पीईए न मच्छरणं, दरिद्दो दोसेहि न विहवेणं । --- स० पू० ४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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